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व्यंग्यः कोरोना काल का पहला हैप्पी न्यू इयर व पिछले साल का रूदनगान

 इसी रचना के कुछ अंश: वैसे भी हम भारतीय इतने उत्सवप्रिय होते हैं कि मातम के माहौल में भी बैंडबाजा बजवा देते हैं।
-इंसान घर में बैठे बोर हो चला तो पीएम साहब समय-समय पर आकर थाली बजवाने, ताली बजवाने व मोमबत्ती जलाने का आहवान कर जाते…

साला, आज मारे खुशी के मेरी पतलून गीली होते-होते बची। खुशी इस बात की कि हम तो बीस को बाय-बाॅय कर इक्कीस में घुस गये। देर रात से लेकर सुबह-सुबह तक पड़ाकों की आवाज से इस बात की तसदीक हुई कि अपुन भी कोराना काल के वीर योद्धाओं की तरह इस नामुराद वायरस को पटकनी दे नये साल में उतर गये। थोड़ी राहत की सांस मिली इस बात को लेकर सुकून हुआ कि नये साल के पहले दिन टीका को भी मंजूरी मिल गई। तो 21 में बचे रहने के कुछ चांसेस बढ़ गये। वरना साल बीस के मार्च से जिस तरह न्यूज चैनल ने कोरोना को लेकर भवकाल बांधना शुरू किया था, हमें लगा कि कोराना तो ससुरी बाद में मारेगी हम तो मारे टेंशन हार्ट अटैक से निकल लेंगे। फिर बहुतों ने समझाया कि बेटा चुपचाप घर में बंद हो जाओं और टीवी का स्वीच आॅफ कर दो।

खबरदार जो सोशल मीडिया की तरफ फूटी आंख से भी देखा तो वरना तेरी लाइफ की गारंटी उपरवाला भी लेने को तैयार नहीं होगा। और घर में अपने घर के सदस्यों से कुछ दूर दूर ही रहो, हो सके तो नाक पर मास्क भी चढाये रखो, कोरोना को कोई पता नहीं ससुरी किस रास्ते घर में घुसे फिर मुंह व नाक के रास्ते अंदर उतर कर ले गई तेरी जान। मगर खाली घर में बैठे रहने से भी काम क्या चलता, इंसान के पास एक पापी पेट होता है, जो काम करो या न करो, पैसे पल में रखों या ना रखो मगर वह मानने को तैयार नहीं होता, तो इस पेट की खातिर बाहर तो निकलना ही था। तभी सब्जी वाले ने आवाज दी…मैं तेजी से बाहर की ओर भागा। फिर उल्टे पांव घर में आकर मुंह पर मास्क टांगा और एक टोकरी लेकर सब्जी वाले के पास गया। एकदम सोशल डिस्टेंसिंग मेनटेन करते हुए जैसी भी बासी सब्जी ली और पैसे चुकता कर घर में आया। खुद दस-15 बार सब्जी धोयी फिर 15-20 सेकेंड की जगह 10 मिनट तक साबुन मलता रहा। फिर जाकर थोड़ी चैन मिली और लगा कि अब कोरोना भाग गया होगा। साला ऐसा मि. इंडिया है जो न दिखाई देता है, न सुनाई देता है, मगर कब लपक के इंसान की गर्दन दबोच ले कुछ कहा नहीं जा सकता… सो एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कट रहे थे। यहां तक कि रविवार की छुट्टियों का इंतजार भी खत्म हो चला था। मेरी तरह अधिकांश लोग यहीं गाना गाते हुए दिन काटने लगे कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। साला ऐसी बीमारी सदियों में एक बार आती है जो इंसानों को पिंजरे में डाल दे और जानवरों को खुला छोड़ दे।

इंसान घर में बैठे बोर हो चला तो पीएम साहब समय-समय पर आकर थाली बजवाने, ताली बजवाने व मोमबत्ती जलाने का आहवान कर जाते, फिर तो लोग मातम भूल उत्सव मोड में आ जाते, वैसे भी हम भारतीय इतने उत्सवप्रिय होते हैं कि मातम के माहौल में भी बैंडबाजा बजवा देते हैं। गनीमत कहिए कि बैंडबाजा वाला अपनी आदत के मुताबिक ‘‘ आज मेरे यार की शादी है’ गाना नहीं बजा देता, थोड़ा लिहाज रखता है, नहीं तो हम श्मशान में भी नागिन डांस करते मिल जाते। तो मैं बता रहा था कि कैसे पीएम साहब के हफते-15 दिन पर मिलने वाले टास्क ने हमें उत्सवी बनाये रखा। खैर, हर बुरी चीज के साथ कुछ अच्छी बातें भी होती है, तो कोरोना काल में हर इंसान ने महसूस किया कि उनकी जरूरतें दो वक्त की रोटी व दो जोड़ी कपड़े ही हैं, वे नाहक ही भौतिक सुखों की तलाश में भागदौड़ करते हुए आत्मिक सुख की बलि चढ़ा देते हैं। तो उम्मीद है नये साल में हम कोरोना को मात जरूर देंगे और कोरोना काल में जो सबक मिले उसे ताउम्र याद रखेंगे तो हमारी जिंदगी के मायने-मतलब भी बदल जाएं और नाहक की भागदौड़ से थोड़ी राहत। बहरहाल, नये साल के अवसर पर नई उम्मीदों के साथ आपको छोड़े जा रहा हूं। नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं। क्योंकि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है मेरे दोस्त, इसका दामन कभी नहीं छोड़ना।

लेखक- सचिन कुमार सिंह

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