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नौ दिवसीय रामचरितमानस यज्ञः श्री राम ज्ञान हैं, श्री लक्ष्मण वैराग्य एवं माता सीता माया का प्रतिरूप

मोतिहारी। अशोक वर्मा

नरसिंह बाबा मंदिर परिसर में आयोजित नौ दिवसीय रामचरितमानस यज्ञ एवं श्री राम कथा के पांचवे दिन बांदा चित्रकूट से पधारे संगीत मंडली के भगवत भजन से हुआ। तत्पश्चात मानसरत्न डॉक्टर रामगोपाल तिवारी जी ने जनकपुर के पुष्पवाटिका प्रसंग से राम कथा का प्रारंभ करते हुए बताया कि गुरु विश्वामित्र की आज्ञा के बाद राम जी और लक्ष्मण जी जब पुष्प वाटिका का भ्रमण/अवलोकन कर रहे थे तो वहां राम जी ने सीता जी को और सीता जी ने राम जी को देखा । रामजी ने सीता जी को देखकर लक्ष्मण जी से कहा की यही महाराज विदेह की कन्या है जिसे देखकर मेरे मन में कामदेव का विक्षोभ उत्पन्न हो रहा है । आमतौर पर ऐसी बातों की चर्चा सामान्य जन अपनी छोटी भ्राता से नहीं करते लेकिन राम जी ने लक्ष्मण जी से यह चर्चा की ।
रामचरितमानस में वर्णित इस प्रसंग की तात्विक विवेचना करते हुए पंडित जी ने बताया कि राम ज्ञान है, लक्ष्मण जी वैराग हैं, और सीता जी माया है, और माया पर कामदेव का प्रभाव है । ऐसी स्थिति में केवल ज्ञान के बल पर काम को नहीं दबाया जा सकता उसके लिए वैराग का आश्रय लेना पड़ता है । इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने मन के काम पर क्षोभ को बैराग के समक्ष प्रस्तुत कर दिया । उन्होंने यह भी उल्लेखित किया कामदेव का वह सभी जीवात्मा क्या परमात्मा पर भी संचारी होता है इस क्रम में कामदेव ने शिव पर एक बार नारद जी पर एक बार किंतु रामजी पर दो बार वह चलाएं पहली बार पुष्प वाटिका में संयोग को लेकर तो पंच वाटिका में वियोग को लेकर ।
महाराज जी ने व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए बताया कि राम की जीवन यात्रा में तीन नारियां महत्वपूर्ण है – रररंपहली ताड़का जो क्रोध की प्रतीक है दूसरी मंत्रा जो लोग की प्रतीक हैं और तीसरी सूर्पनखा जो काम की प्रतीक है रामजी स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं अथवा उन्होंने ताड़का रूपी क्रोध पर विजय प्राप्त कर लिया किंतु लोग और काम पर विजय प्राप्त करने के लिए त्याग और वैराग्य की आवश्यकता पड़ती है ।
सुविज्ञ कथाकार ने शिव के धनुष का अर्थ प्रस्तुत करते हुए बताया की अंतः चतुष्टय में विराट पुरुष के चंद्रमा मन है ,ब्रह्मा बुद्धि हैं, विष्णु चित्त हैं, तथा शिव अहंकार होते हैं । इस प्रसंग को और विस्तार देते हुए उन्होंने विवेचना किया कि विशुद्ध भक्ति की प्राप्ति के लिए मन बुद्धि और चित्त की निर्मलता आवश्यक है, किंतु अहंकार का टूटना अनिवार्य है । दूसरी ओर भक्ति के प्रदाता भी भगवान शिव हैं, जो भक्ति प्रदान करने से पूर्व याचक की पात्रता की परीक्षा लेते हैं इधर शिव स्वयं अहंकार और उनकी धनुष कठोरता का प्रतीक है ।
भक्ति की प्राप्ति के लिए प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अहंकार जनित कठोरता को तोड़ना पड़ता है तब सीता रुपी भक्ति की प्राप्ति संभव हो पाता है । यह भी ध्यान रखना जरूरी है की जीव के अहंकार को शिव क्षणभर में तोड़ सकते हैं, लेकिन शिव का अहंकार जीव कैसे तोड़ सकता है इसलिए अहंकार रूपी कठोर धनुष शिवकृपा के बगैर नहीं टूट पाती और शिव की यह कृपा गुरु के चरणों में सिर रखने पर ही प्राप्त होता है ।
मनुष्य के अहंकार की बड़ी ही सुंदर व्याख्या महाराज जी ने प्रस्तुत करते हुए कहा कि अहंकार सदैव सद्गुणों का होता है । श्रेष्ठ जाति का अहंकार, श्रेष्ठ कुल का अहंकार, विद्वता का अहंकार , धन संपति का अहंकार, पद प्रतिष्ठा का अहंकार यह मनुष्य का विनाश कराने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं । यह ध्यान रखें कि प्रभु राम किसी भी अहंकार पालने वाले सद्गुणी के पास नहीं जाकर अधम जाति में जन्मी निरहंकारी भक्त माता शबरी के यहां गए ।
कथा को समापन की ओर ले जाते हुए महाराज जी ने कहा कि भगवान राम अपने जीवन लीला में स्वयं विशेष कुछ नहीं किया, बल्कि सिर्फ जहां भी गए बड़ों को प्रणाम करके आशीर्वाद प्राप्त किया और मर्यादापुरुषोत्तम बन गए ।
रामकथा का मंचसंचालन प्रोफेसर रामनिरंजन पांडेय ने की । मौके पर भारी संख्या में रामभक्तों के साथ भोलानाथ सिंह, अवधकिशोर द्विवेद्वी, कामेश्वर सिंह,संजय कुमार तिवारी, ठाकुर साह, अरुण प्रसाद आदि उपस्थित रहे ।

 

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