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खास रपटः राणा सांगा व फूलन देवी के बहाने पुरानी जातिवादी राजनीति को हवा दे रहे अखिलेश, निशाने पर योगी

– गड़े मुर्दे उखाड़कर 27 की राह आसान बनाने में जुटे, इस तरह की राजनीति से फायदा या नुकसान?
सचिन कुमार सिंह।
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल ही में फूलन देवी को वीरांगना कहते हुए उनके चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की, तो एक बार फिर भारतीय राजनीति में प्रतीकों के ज़रिये जातीय ध्रुवीकरण का प्रयास सामने आया। फूलन देवी की कहानी को केवल अत्याचार से बदले की वीरता के रूप में पेश करना, एक अधूरी और असंतुलित व्याख्या है, जिसमें बहुत से कड़वे सच छिपे रह जाते हैं।

फूलन देवी की छवि को वीरांगना बनाकर अखिलेश यादव एक बार फिर उसी पुरानी जातिवादी राजनीति को हवा दे रहे हैं, जिसका मकसद दलितों, पिछड़ों और उच्च जातियों को एक-दूसरे से लड़ाकर वोटबैंक तैयार करना है। यह वही राजनीति है, जो माफियाओं और अपराधियों को पीड़ित का चेहरा देकर उन्हें संसद में बैठा देती है।

यही अखिलेश यादव हैं जो एक तरफ कानून-व्यवस्था की दुहाई देते हैं, वहीं दूसरी तरफ एक नरसंहार में शामिल व्यक्ति की स्मृति को संवेदनशीलता का नाम देकर प्रस्तुत करते हैं। यह विडंबना नहीं, बल्कि योजनाबद्ध ढंग से समाज को बांटने की चाल है।

उनका यह प्रयास सीधे तौर पर योगी आदित्यनाथ सरकार की छवि को धूमिल करने की कोशिश है, जो अपराधियों पर कड़ी कार्रवाई के लिए जानी जाती है। लेकिन अखिलेश की राजनीति में अपराधी यदि जातिगत नायक हो, तो उसके पाप भी पराक्रम में बदल जाते हैं।

फूलन देवी की शुरुआती ज़िन्दगी- एक त्रासदी का बीज

फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के घूरा का पुरवा गांव में हुआ था। बेहद गरीब मल्लाह जाति में जन्मी फूलन का जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा रहा। महज़ 10 साल की उम्र में उनका विवाह एक 45 वर्षीय अधेड़ पुरुष से कर दिया गया, जिसने उनके साथ अत्याचार किए। परिवार, विशेषकर चाचा और भाइयों द्वारा ज़मीन विवाद और सामाजिक बहिष्कार ने फूलन को मानसिक और सामाजिक रूप से तोड़ दिया।

डकैती की दुनिया में प्रवेश और अपराधों की श्रृंखला

फूलन देवी बाद में डकैत विक्रम मल्लाह के संपर्क में आईं। विक्रम ने उन्हें उस समय श्सहाराश् दिया, जब उनके पास कोई नहीं था। लेकिन यह सहारा जल्द ही अपराध का रास्ता बन गया।

डाकुओं के गिरोह में शामिल होने के बाद फूलन देवी पर कई गंभीर आरोप लगे

अपने पति और उसकी दूसरी पत्नी पर हिंसक हमला

गांव के दो लोगों की हत्या

गिरोह के आंतरिक संघर्ष में हिस्सा

बेहमई नरसंहार एक कलंक या क्रांति?

14 फरवरी 1981 को फूलन देवी के नेतृत्व में उनके गिरोह ने बेहमई गांव में 20 ठाकुरों को गोलियों से भून डाला। दावा किया गया कि ये वे ठाकुर थे जिन्होंने फूलन का अपहरण और बलात्कार किया था। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में यह कभी साबित नहीं हो सका कि बेहमई में मारे गए सभी लोग दोषी थे।

मीडिया और राजनीतिक शक्तियों ने इसे जातिगत प्रतिशोध और दलित बदला की कहानी बना दी, जबकि सच्चाई यह थी कि मारे गए अधिकतर लोग निहत्थे और निर्दाेष थे। कई गवाहियों में यह भी सामने आया कि कुछ लोग तो शादी समारोह में मेहमान बनकर आए थे जिन्हें पहचान तक नहीं मिली, फिर भी गोली मार दी गई।

1994 में आत्मसमर्पण के बाद फूलन देवी को बिना ठोस सजा के जेल से रिहा किया गया और बाद में उन्हें संसद सदस्य बना दिया गया। क्या यह एक पीड़िता के साथ न्याय था या एक अपराधी को राजनीतिक उपयोग के लिए श्प्रतिमाश् बना दिया गया?

नायिका या निमित्त?
फूलन देवी की कहानी सच्चाई, पीड़ा, अन्याय और प्रतिशोध की गहरी उलझन है। लेकिन आज की राजनीति में जब एक नेता उन्हें वीरांगना कहकर जातिगत संघर्षों को पुनर्जीवित करने की कोशिश करता है, तो यह सवाल ज़रूरी हो जाता है

-क्या निर्दाेषों की हत्या को योगदान कहकर सम्मानित करना, समाज के लिए उचित संदेश है?

-फूलन देवी की असल पहचान एक पीड़िता की थी, लेकिन उन्हें बदले की देवी बनाकर पेश करना, न्याय और इतिहास दोनों के साथ छल है।

राजनीति में प्रतीकों का प्रयोग
अखिलेश यादव या अन्य नेता जब फूलन देवी को “वीरांगना” कहकर सम्मान देते हैं, तो वे उनकी कहानी के एक पक्ष को उठाते हैं, न कि पूरी सच्चाई को।

नैतिक और कानूनी दृष्टिकोण से
फूलन देवी बलात्कार पीड़िता थीं या नहीं, यह कभी न्यायालय में साबित नहीं हो पाया। कोई मेडिकल या कानूनी पुष्टि नहीं मिली। लेकिन 20 निर्दाेष ठाकुरों की सामूहिक हत्या, न्याय नहीं, बल्कि निजी बदला और हिंसा थी। ऐसा कृत्य लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था को धता बताने जैसा है।

. फिर समाज ने फूलन को नायिका क्यों बना दिया?
यहां से कहानी कानून से हटकर ष्जनभावनाओंष् और ष्राजनीतिक नैरेटिवष् पर चली गई।

🌍 समाज के दो हिस्सों ने अलग-अलग प्रतिक्रिया दीरू
एक पक्ष ने कहारू फूलन देवी ने उत्पीड़न और जातिगत अत्याचार का बदला लिया कृ इसलिए वो ष्ठंदकपज फनममदष् नहीं, ष्श्रनेजपबम फनममदष् है।

दूसरा पक्ष कहता हैरू उसने 22 निर्दाेष लोगों को मारा, जिनमें कई का उससे कोई लेना-देना नहीं था कृ यह क्रूर और नृशंस नरसंहार था।

👉 लेकिन कानूनी रूप से नरसंहार को कभी जस्टिफाई नहीं किया गया।

. बेहमई नरसंहार क्या हुआ था?
14 फरवरी 1981 को कानपुर देहात के बेहमई गांव में फूलन देवी और उनके गैंग ने धावा बोला।

वहां 22 ठाकुर पुरुषों को लाइन में खड़ा करके गोली से भून दिया गया।

यह घटना भारतीय इतिहास के सबसे बड़े एक्स्ट्रा जुडिशियल नरसंहारों में माना जाता है।

🧾 2. फूलन देवी का पक्ष क्या था?
फूलन देवी का कहना थारू

“बेहमई गांव के ठाकुरों ने मेरे साथ सामूहिक बलात्कार किया था और यह नरसंहार उस अपमान का बदला था।”

👉 लेकिन ये बात केवल उनके खुद के बयान और कुछ लेखकों की किताबों में है।
👉 कोई कोर्ट द्वारा जांची गई पुष्टि नहीं है कि बलात्कार हुआ था।

⚖️ 3. क्या कानून ने इस दावे को स्वीकार कर लिया?
❌ नहीं। कोर्ट ने फूलन देवी के इस दावे को नरसंहार को जस्टिफाई करने के लिए कभी स्वीकार नहीं किया।
बेहमई कांड की सुनवाई हत्या और डकैती के अपराधों के तहत हुई।

बलात्कार का मामला कोर्ट में अलग से या निर्णायक रूप में कभी नहीं आया, क्योंकि एफआईआर दर्ज नहीं थी, मेडिकल एग्ज़ामिनेशन नहीं हुआ, कोई गवाह नहीं था

 

जातिवादी राजनीति का प्रयोगशाला

मुलायम सिंह से लेकर अखिलेश यादव तक, समाजवादी पार्टी ने फूलन देवी की कहानी को एक ‘राजनीतिक हथियार’ की तरह इस्तेमाल किया है। इसके जरिए न केवल पिछड़े वर्गों को भावनात्मक रूप से जोड़ा गया, बल्कि ठाकुर और ब्राह्मण जैसे जातीय समूहों को निशाने पर भी लिया गया।

हाल ही में समाजवादी पार्टी के एक दलित सांसद द्वारा राणा सांगा पर विवादित टिप्पणी की गई, जिसे पार्टी नेतृत्व ने न केवल नजरअंदाज किया बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उसका बचाव भी किया। इसके बाद फूलन देवी को ‘वीरांगना’ की उपाधि देकर उन्हें सम्मानित करना उसी जातिगत उन्माद का हिस्सा दिखता है।

यह सब कुछ एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लगता है जिसका मकसद है योगी आदित्यनाथ जैसे प्रभावशाली ठाकुर नेता की छवि को धूमिल करना, ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव में ’27 की गोटी’ — यानी पिछड़ी व दलित जातियों का समीकरण सेट किया जा सके।

अगर यह मान भी ले कि बलात्कार हुआ था इसलिए हत्या जायज है, और ऐसी कू्ररता को राजनीतिक फायदे के लिए वीरांगना शब्द का इस्तेमाल करना एक जाति विशेष के जख्मों को कुरेदने जैसा है। पहले राणा सांगा के नाम पर दलित व राजपूतों को लड़ाने की कोशिश और अब फूलन देवी जैसी डकैत को वीरांगना बताना, यह सब ऐसे ही नहीं है, यह संयोग नहीं प्रयोग है, 2027 विधानसभा चुनाव की पिच तैयार करने की। और योगी आदित्यनाथ जैसे नेता को उनकी जाति से जोड़कर बदनाम करने की। कुल मिलाकर इस तरह की राजनीति से भले नेताओं के वोटबैंक में कुछ प्रतिशत का इजाफा हो जाय, मगर वोट के लिए सामाजिक समरसता पर सोची-समझी रणनीति के तहत प्रहार कहीं से जायज नहीं कहा जा सकता।

 

 

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