नेशनल डेस्क।
मतदाता सूची में कथित गड़बड़ियों को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और चुनाव आयोग आमने-सामने हैं। राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि लोकसभा चुनावों के दौरान आयोग ने सत्तारूढ़ बीजेपी का साथ दिया और वोटर डेटा में छेड़छाड़ की गई।
राहुल गांधी का दावा है कि बेंगलुरु सेंट्रल की महादेवपुरा सीट पर 1 लाख से ज्यादा वोट “चोरी” हुए और यही वजह रही कि बीजेपी यहां जीत पाई। अब खबर है कि गठबंधन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है।
महाभियोग संसद का सबसे गंभीर संवैधानिक औज़ार है। इसे सिर्फ़ तभी लाना चाहिए जब किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने स्पष्ट कदाचार किया हो, या संविधान का उल्लंघन किया हो, और उसका सबूत भी ठोस रूप में मौजूद हो
सिर्फ़ राजनीतिक आरोप या चुनावी असहमति की वजह से महाभियोग की प्रक्रिया छेड़ना, संविधान की गरिमा को कमजोर करता है। भारत में आज़ादी के बाद से अब तक किसी मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग नहीं लाया गया है, क्योंकि यह संस्था लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाती है।
अगर विपक्ष वाकई में ठोस सबूतों के साथ आता है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहा जा सकता है। लेकिन अगर यह केवल राजनीतिक दबाव और वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा रहा है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक कदम है।
यानी, सवाल चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर उठाना जायज़ है, लेकिन बिना पुख़्ता सबूत महाभियोग की धमकी देना सही नहीं माना जाएगा।
अभी तक जो कुछ सामने आया है, वह सिर्फ़ आरोप हैं, ठोस सबूत नहीं।
राहुल गांधी और विपक्ष ने कहा है कि “बेंगलुरु महादेवपुरा में 1 लाख वोट गायब कर दिए गए” या “कुछ राज्यों में वोट चोरी हुई”, लेकिन इसके लिए उन्होंने किसी आधिकारिक दस्तावेज़, जांच रिपोर्ट, गवाह या कोर्ट में केस पेश नहीं किया।
चुनाव आयोग बार-बार कह चुका है कि अगर किसी के पास सबूत है तो वे जांच के लिए उपलब्ध कराएँ।
अब तक न तो किसी हाईकोर्ट, न ही सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपों को मान्यता दी है।
हकीकत यह है कि चुनाव आयोग के पास अपनी जाँच एजेंसी नहीं होती। वह राज्यों की मशीनरी पर निर्भर रहता है। ऐसे में किसी भी गड़बड़ी का पहला दोष स्थानीय प्रशासन पर आएगा, सीधे चुनाव आयोग पर नहीं। इसलिए यह कहना उचित होगा कि अभी विपक्ष के पास थोस सबूत नहीं, बल्कि केवल राजनीतिक दावे हैं।
4. महाभियोग का आधार
मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्तों पर महाभियोग तभी चल सकता है जब यह साबित हो जाए कि उन्होंने जानबूझकर और पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया। इसके लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत चाहिए, जो बिना ठोस सबूतों के असंभव है।
निचोड़
अगर विपक्ष के पास पुख्ता सबूत होते तो, सबसे पहले अदालत में जाते, चुनाव आयोग को कानूनी तौर पर घेरते, और तभी महाभियोग का मुद्दा उठाते।
बिना सबूत सीधे महाभियोग की धमकी देना जनता की नज़र में सिर्फ़ राजनीति लगेगा।
मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner – CEC) और चुनाव आयुक्तों की स्थिति कुछ हद तक सुप्रीम कोर्ट के जजों जैसी है।
1. हटाने की प्रक्रिया
संविधान के अनुच्छेद 324(5) में साफ लिखा है कि
मुख्य चुनाव आयुक्त को केवल उसी तरह हटाया जा सकता है, जैसे सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाया जाता है।
यानी संसद में महाभियोग जैसी प्रक्रिया (impeachment-like process) चलानी पड़ती है।
इसके लिए:
पहले लोकसभा या राज्यसभा, किसी भी सदन में प्रस्ताव लाया जाता है।
प्रस्ताव पास करने के लिए सदन के कुल सदस्यों का विशेष बहुमत (two-thirds majority) चाहिए।
फिर दोनों सदनों में इसे पास होना अनिवार्य है।
इसके बाद ही राष्ट्रपति उन्हें पद से हटा सकते हैं।
2. चुनाव आयुक्तों की स्थिति
अन्य चुनाव आयुक्त (जो CEC के साथ काम करते हैं) को हटाने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है।
लेकिन यदि मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश न हो, तो केवल राष्ट्रपति मनमाने ढंग से उन्हें नहीं हटा सकते।
3. अब तक का इतिहास
अभी तक किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया संसद में कभी पूरी नहीं हुई। मतलब, अब तक किसी CEC का महाभियोग सफल नहीं रहा।
भारत के इतिहास में अब तक किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के खिलाफ महाभियोग जैसी कार्रवाई पूरी तरह से नहीं हुई है।
लेकिन कुछ मौके ऐसे ज़रूर आए जब विवाद हुआ:
1. टी.एन. शेषन (1990–1996)
वे सबसे ज्यादा चर्चित CEC माने जाते हैं।
उन्होंने चुनाव प्रणाली को काफ़ी सख़्ती से दुरुस्त किया था, जिससे राजनीतिक दल नाराज़ हो गए।
तब संसद में चर्चा ज़रूर हुई, लेकिन महाभियोग का प्रस्ताव लाने की हिम्मत किसी ने नहीं की।
2. नागेन्द्र सिंह (1973–77) और कुछ अन्य
इनके समय पर भी आरोप लगे थे कि सरकार के दबाव में फैसले लिए जाते हैं।
फिर भी औपचारिक रूप से महाभियोग का प्रस्ताव नहीं आया।
3. 2009 – एन. गोपालस्वामी बनाम नवीन चावला विवाद
CEC एन. गोपालस्वामी ने आरोप लगाया कि चुनाव आयुक्त नवीन चावला पक्षपाती हैं और कांग्रेस पार्टी को फ़ायदा पहुँचा रहे हैं।
गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति को लिखित में उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश भी की।
लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने इस सिफारिश को खारिज कर दिया।
यह मामला बहुत चर्चा में रहा, लेकिन महाभियोग की नौबत नहीं आई।
अब तक किसी CEC को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव न तो लाया गया और न ही पास हुआ।
इसका कारण है कि प्रक्रिया बहुत कठिन है और सभी दल मिलकर ही इसे आगे बढ़ा सकते हैं।
अगर पूरा विपक्ष मिलकर भी मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के खिलाफ हटाने या महाभियोग जैसी कार्रवाई करने की कोशिश करता है तो कानूनी और संवैधानिक रूप से यह इतना आसान नहीं है।
1. प्रक्रिया क्या है
CEC को हटाने की प्रक्रिया वही है जो सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए है।
इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास होना चाहिए।
उसके बाद राष्ट्रपति उस पर अंतिम मुहर लगाते हैं।
2. विपक्ष की स्थिति
वर्तमान स्थिति में लोकसभा और राज्यसभा, दोनों जगह विपक्ष के पास इतना बहुमत नहीं है कि दो-तिहाई समर्थन जुटा सके। बिना सत्ता पक्ष के समर्थन के महाभियोग संभव ही नहीं है।
3. असर क्या होगा
विपक्ष यदि प्रस्ताव लाने की कोशिश करता है तो यह एक राजनीतिक संदेश बनेगा, व्यावहारिक परिणाम नहीं। इसका उपयोग वे जनता में “चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है” जैसी धारणा बनाने के लिए करेंगे।
लेकिन प्रक्रिया पूरी करना लगभग असंभव है जब तक सत्ता पक्ष साथ न हो।
यानी अगर विपक्ष “महाभियोग लाने” की घोषणा भी करे, तो वह प्रतीकात्मक कदम ही होगा। असली हटाना तभी होगा जब सत्ता पक्ष उसका समर्थन करे, और यह संभावना बहुत कम है।
अगर विपक्ष सिर्फ चुनावी लाभ और राजनीतिक समीकरण साधने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त पर महाभियोग जैसी बात करता है, तो यह वास्तव में देशहित से ज़्यादा दुष्प्रचार और गलत धारणा बनाने की रणनीति लगेगी।
क्यों यह देशहित में नहीं है
संस्था पर अविश्वास फैलाना
चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता पर बिना ठोस सबूत हमला करने से आम जनता का लोकतंत्र पर भरोसा कमजोर होता है।
विदेशी और आंतरिक संदेश
दुनिया में भारत की छवि लोकतंत्र की मज़बूत मिसाल के रूप में है। विपक्षी आरोपों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह छवि प्रभावित हो सकती है।
ग़लत उदाहरण
अगर हर चुनाव के बाद विपक्ष हार मानने के बजाय आयोग पर ही आरोप लगाने लगे तो यह एक खतरनाक परंपरा बन जाएगी।
विपक्ष का मकसद
जनता में यह संदेश देना कि “सत्ता पक्ष और आयोग मिलीभगत कर रहे हैं।”
हार को छुपाने और वोटरों की गोलबंदी करने के लिए मुद्दा बनाना।
मीडिया में बने रहना और “हम संघर्ष कर रहे हैं” की छवि दिखाना।
असली रास्ता क्या है
-यदि गड़बड़ी के वास्तविक सबूत हैं तो अदालत और संवैधानिक माध्यम ही सही जगह हैं। महाभियोग जैसा कदम सिर्फ राजनीतिक नाटक बनकर रह जाएगा और आम मतदाता को और भ्रमित -करेगा। इसे देशहित से ज़्यादा राजनीतिक स्वार्थ और जनता को गुमराह करने वाला कदम कहा जा सकता है।























































