मोतिहारी। सचिन कुमार सिंह
कहां तो आस थी कि सीएम नीतीश के खजाने से पूर्वी चंपारण के विकास के लिए कुछ अनमोल मोती निकलेंगे। कुछ अच्छी सौगातें मिलेंगी। और नहीं तो कम से कम महात्मा गांधी केविवि के भूमि अधिग्रहण संबंधी मुद्दे पर ही कुछ आश्वासन दे दे। हाकिम इतने तामझाम के बीच मोतिहारी में समाधान यात्रा के नाम पर आये हैं तो कुछ तो नया होना चाहिए था। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
सीएम नीतीश पत्रकारों के सवालों का जवाब देने के बजाय वहीं कहते नजर आये जो वे सोच कर आए थे। सिर्फ अपनी सुनाई, दूसरे को सुनने का मौका नहीं दिया। सूबे का मुखिया विकास कार्यों को देखने आ रहा है, तो आम पब्लिक में भी उत्साह था कि शायद हाकिम उनकी भी फरियाद सुने। जब सरकार खुद चलकर हमारे द्वार आए हैं तो उनका स्वागत भी करेंगे और लगे हाथ अपनी फरियाद भी सुनाएंगे। मगर सूबे के मुखिया ने इस बार आम पब्लिक से दूरी बनाकर रखी। आम लोगों के वोटों के सहारे सीएम की कुर्सी पर विराजमान सीएम अगर जनता से मिलने नहीं आए तो फिर यह कैसी समाधान यात्रा थी। और इस यात्रा से आम जनता की समस्याओं का क्या समाधान निकला। समाधान निकालने के लिए उन्हें आम पब्लिक से रूबरू होना चाहिए था और नहीं तो कम से कम योजनाओं की हकीकत को धरातल पर टटोलना चाहिए था, मगर उन्होंने इसके बजाय बंद कमरे में अफसरों से ही फीडबैक ले लिया। इस कारण आम लोगों में काफी निराशा थी। आम लोगों की शिकायत थी कि सीएम ने सिर्फ अपनी कही, हमारी सुनी नहीं। सुनी भी तो उन अफसरों की जिनके साथ उन्होंने बंद कमरे में मीटिंग की। हालांकि इस बैठक में जनप्रतिनिधि भी शामिल थे।
इस दौरान भाजपा विधायक पवन जायसवाल ने भी क्षेत्र की समस्याओं को रखा, मगर आम लोगों को कसक रही कि सीएम आए तो कम से कम कुछ लोगों से मिल लेते। उनका दुख-दर्द सुन लेते। यहां तो हालात यह रहे कि ना जी भर के देखा, ना कुछ बात की, बड़ी आरजू थी सीएम से मुलाकात की। मगर यह आरजू पूरी नहीं हुई। खैर, कोई नहीं, बस इस बात का ही संतोष सही कि सीएम के आने के बहाने शहर की सड़कें व गलियां चकाचक हो गई। सड़कें कुछ ही दिनों के लिए सही चौंड़ी दिखने लगी। सड़क के दोनों किनारे भी साफ-सुथरे नजर आने लगे।
पिच सड़क को भी गिट्टी डाल और उंचा कर दिया गया। जगह-जगह चूने का छिड़काव भी किया गया। सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसी रही कि पूरा मोतिहारी शहर पुलिस छावनी नजर आने लगा। इतना सबकुछ के बावजूद कसक तो रह ही गई- काश! सीएम हमरी सुन लेते। फिर अपनी सुनाते तो इस समाधान यात्रा का मकसद सफल हो जाता। खैर। हाकिम ने खुद को तसल्ली दे दी कि काम अच्छा हो रहा है। कागजों पर विकास के आंकड़ें सचमुच गुलाबी होंगे, मगर हकीकत के कितने करीब हैं, यह तो सरकारी अफसरान ही जानते होंगे।