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NDA की प्रचंड जीत में ढहा MY समीकरण, महागठबंधन का पूरा गणित फेल, नीतीश-मोदी का जादू बरकरार

सचिन कुमार सिंह। एडिटर

2025 के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर प्रमाणित कर दिया कि गणतंत्र की भूमि बिहार न तो मौन रहती है और न ही ठहरती है। वह समय आने पर विस्फोटक जनादेश भी दे सकती है। इस बार राज्य ने ऐसा फैसला दिया है जिसे न केवल राजनीतिक दल, बल्कि पूरे देश की राजनीति समझने की कोशिश कर रही है।
इस चुनाव ने बता दिया कि राज्य का मतदाता न तो भावनाओं में बहता है और न ही लंबे समय तक किसी एक राजनीतिक ध्रुवीकरण को स्वीकार करता है। 243 सीटों वाली विधानसभा में एनडीए को 202 और महागठबंधन को केवल 35 सीटें मिलना यह संकेत देता है कि जनता ने इस बार एक ऐसा निर्णय दिया है जिसमें सत्ता भी है और नियंत्रण का संदेश भी। यह चुनाव न तो सिर्फ किसी एक नेता की जीत है, न केवल किसी एक दल की. यह कई परतों वाला जनादेश है, जिसे समझने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सभी आयामों की पड़ताल जरूरी है।

सबसे पहले बात करते हैं नीतीश कुमार की। लंबे राजनीतिक अनुभव, संतुलित छवि और प्रशासनिक विश्वसनीयता ने उन्हें फिर एक बार केंद्र में ला खड़ा किया है। मतदाताओं ने भाजपा के “हाथी” और राजद के “घोड़े” दोनों को संयमित करने की जिम्मेदारी नीतीश को दी है। दसवीं बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर इस बात का प्रमाण है कि बिहार का वोटर आज भी स्थिरता और भरोसे को महत्व देता है। लेकिन यह कहना भी अधूरा होगा कि यह जीत केवल नीतीश की क्षमता पर आधारित है।

भाजपा की संगठित चुनावी मशीनरी, बूथ-स्तर की पकड़, केंद्र सरकार की योजनाओं का ग्रामीण प्रभाव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी इस परिणाम के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे। कई सीटों पर मोदी फैक्टर निर्णायक भूमिका में रहा। भाजपा की रणनीति ने नीतीश को वह आधार दिया, जिस पर एनडीए की इतनी बड़ी जीत खड़ी हुई। यह स्पष्ट है कि परिणाम न तो केवल जदयू का है न केवल भाजपा का। यह दोनों की संयुक्त ताकत का फर्क है।
 महागठबंधन के लिए कई स्तरों पर चेतावनी
महागठबंधन के लिए यह चुनाव कई स्तरों पर चेतावनी लेकर आया। यादव- मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में परंपरागत “माय समीकरण” का टूटना इस चुनाव का सबसे बड़ा राजनीतिक संकेत है। वर्षों तक अजेय माने जाने वाले सामाजिक समीकरण इस बार मतदाताओं की प्राथमिकताओं में पीछे रह गए। तेजस्वी यादव की नेतृत्व शैली, उम्मीदवार चयन में असंतुलन, परिवारवाद की छवि और आक्रामक प्रचार के विपरीत जनता की अपेक्षाएँ कहीं मेल नहीं खाईं। यह प्रदर्शन बताता है कि बिहार में केवल जाति आधारित राजनीति अब पहले जितनी प्रभावी नहीं रही। साथ ही आम लोगों को तेजस्वी की लुभावनी घोषणाओं पर खासकर हर घर नौकरी देने के चुनावी वायदे पर भी भरोसा नहीं हुआ, उन्हें यह चुनावी जुमला से ज्यादा कुछ न लगा।

वाम दलों की गिरती स्थिति भी चिंता का विषय

वाम दलों की गिरती स्थिति भी चिंता का विषय बनी हुई है। कभी विचार आधारित राजनीति का मजबूत स्तंभ रहे सीपीआई, सीपीएम और माले, तीनों घटकर नगण्य प्रभाव में सिमट गए। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला, जिसने मुकाबले को द्विध्रुवीय बनाए रखा।

इस चुनाव का एक सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मतदाताओं ने बाहुबली, धनबल और वंशवाद के प्रतीकों को कई जगह कड़ी चुनौती दी। कई बड़े राजनीतिक घरानों की हार यह संकेत देती है कि मतदाता अब केवल नाम से प्रभावित नहीं होते। हालांकि वंशवादी राजनीति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है, लेकिन इसकी सीमाएँ अब साफ दिखने लगी हैं।

चुनाव में ध्रुवीकरण की उपस्थिति को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भाजपा की बड़ी सफलता यह भी दर्शाती है कि पहचान आधारित राजनीति बिहार की राजनीतिक चेतना में एक स्थायी धारा बन चुकी है। वहीं कई सवर्ण बहुल इलाकों में यादव और मुस्लिम मतदाता भी परंपरागत एकजुटता की ओर लौटे। इससे स्पष्ट है कि जातीय और सामाजिक पहचानें अभी भी निर्णायक हैं, भले उनका प्रभाव पहले जैसा एकतरफा न हो।

कुल मिलाकर, बिहार का 2025 का जनादेश किसी एक विचार की जीत या किसी एक दल की असाधारण उपलब्धि नहीं है। यह एक ऐसा निर्णय है जिसमें मतदाताओं ने संतुलन, स्थिरता और नियंत्रण को प्राथमिकता दी। उन्होंने न भाजपा को पूर्ण स्वतंत्रता दी और न ही जदयू को अकेले आगे बढ़ने का अधिकार। वहीं महागठबंधन को स्पष्ट संदेश मिला है कि केवल गौरवशाली अतीत या सामाजिक समीकरण अब जीत की गारंटी नहीं हो सकते। इस चुनाव में महिला मतदाताओं की महती भूमिका ने भी जातीय समीकरण को बुरी तरह गड्डमगड्ड कर दिया। पुरुष मतदाताओं से ज्यादा महिला वोटरों ने जोश-खरोस के साथ लोकतंत्र के इस महायज्ञ में अपनी वोट रूपी आहुति देकर एक नयी तरह की राजनीति की नींव डाली। भले ही हार की खीझ मिटाने वाले लोग इसे 10 हजारी योजना से जोड़कर देखें मगर यह कटु सत्य है कि इस जीत में सिर्फ इसी योजना का योगदान नहीं रहा। अगर कोई इसके लिए मतदाताओं को बिकाउ बताता है तो वह एक तरह से जनादेश व आम जनता का अपमान ही कहा जाएगा।

बिहार ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसका वोटर विवेकपूर्ण है। वह सत्ता को भी चाहता है, पर उसके ऊपर संतुलन की लगाम भी रखना चाहता है। यही इस चुनाव का सबसे बड़ा संदेश है।

243 सदस्यीय विधानसभा मे एनडीए को 202 और महागठबंधन को 35 सीटें
मिलना केवल किसी एक कारक की देन नहीं है। बल्कि यह परिणाम सत्ता-विरोध, पहचान-राजनीति, सामाजिक समीकरण, विकास-प्रतिमान और राष्ट्रीय नेतृत्वकृइन सभी का संयुक्त निष्कर्ष है।

⭐ महागठबंधन और राजद को पड़ा बड़ा झटका

40-45 विधानसभा क्षेत्रों में यादव-मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों में
राजद का प्रदर्शन कमजोर रहा। यह वह क्षेत्र था जहाँ वर्षों से “मायसमीकरण” निर्णायक रहता था। लेकिन इस बार स्थानीय असंतोष, उम्मीदवार चयन में भ्रम, परिवारवाद की छवि, और नेतृत्व पर विश्वसनीयता संकट ने असर डाला।

तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ने कई परंपरागत गढ़ों को खो दिया।
यह न केवल राजनीतिक रणनीति की विफलता है बल्कि यह संकेत भी है कि
जातीय समीकरण आज भी निर्णायक तो हैं, पर अटल नहीं।

⭐ वाम दलों का क्षरण

सीपीआई, माले, सीपीएम- तीनों वाम दल राजद की नैया पर सवार थे,
फिर भी वे धीरे-धीरे सिमटते जा रहे हैं। कभी वैकल्पिक राजनीति की मजबूत आवाज रहे ये दल आज सामाजिक आंदोलनों और आर्थिक मुद्दों पर प्रभाव खो चुके हैं। इससे भाजपा को एक तरफ़ा मुकाबला करने का अवसर मिला।

⭐ नीतीश का शासन मॉडल अभी भी विश्वसनीय

बावजूद इसके कि उम्र, गठबंधन बदलाव और स्वास्थ्य को लेकर प्रश्न उठते रहे,
नीतीश कुमार की प्रशासनिक शैली, सामाजिक योजनाओं, और अपेक्षाकृत शांत राजनीतिक व्यवहार ने उन्हें एक विश्वसनीय केंद्र बनाए रखा। मतदाताओं ने माना कि
भले भाजपा बड़ी पार्टी है लेकिन नीतीश कुमार ने उसे यूपी मॉडल की कठोरता की ओर झुकने नहीं दिया।
बिहार ने न किसी एक दल को सम्पूर्ण स्वामित्व दिया है,न किसी विचारधारा को पूर्ण पराजय।
यह एक संतुलन साधने का जनादेश है, जहाँ मतदाता ने स्पष्ट कहा है कि बिहार न तो केवल “हिंदुत्व” चाहता हैऔर न केवल “जातीय समीकरण”,वह शक्ति भी चाहता है और नियंत्रण भी।

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