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संपादकीयः शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पीएगा वह दहाड़ेगा, एक ब्रह्मवाक्य या खोखला जुमला?

-सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक भाषणों तक, यह कथन इतनी बार दोहराया गया है कि लोग इसे ब्रह्मवाक्य मान बैठे

सचिन कुमार सिंह।।
आजकल एक वाक्य बहुत चर्चित हो गया है, शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पिएगा वह दहाड़ेगा। सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक भाषणों तक, यह कथन इतनी बार दोहराया गया है कि लोग इसे ब्रह्मवाक्य मान बैठे हैं। यह सच है कि इस कथन को शिक्षा का महत्व दर्शाने के लिए प्रयोग में लाया गया, मगर आजकल लोग इसे अर्थ का अनर्थ बना एक राजनीतिक नैरेटिव के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। कई लोग इसे डॉ. भीमराव अंबेडकर से जोड़ते हैं, जबकि इसके प्रामाणिक स्रोत का कोई ऐतिहासिक या बौद्धिक आधार नहीं मिलता। ज़रूरत है इस कथन के पीछे छिपी विचारहीनता को समझने की।

क्या यह कथन अंबेडकर का है?
ऐतिहासिक रूप से देखें तो शिक्षा शेरनी का दूध है…वाला वाक्य डॉ. अंबेडकर के लिखित या भाषणों में सीधा शब्दशः नहीं मिलता। यह संभवतः बाद में दलित आंदोलन के जननायकों या अनुयायियों द्वारा गढ़ा गया एक रूपकात्मक नारा है, जो अंबेडकर की सोच और दर्शन से पूरी तरह मेल खाता है। बाबा साहेब का पूरा जीवन ही शिक्षा के महत्व को रेखांकित करने वाला था। उन्होंने कहा था

शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।
यह मूलमंत्र ही इस कथन का सार है। यानी यदि यह कथन अंबेडकर का मूल नहीं भी हो, तो उनकी विचारधारा से पूरी तरह जुड़ा हुआ है।

क्या शिक्षा केवल “दहाड़ने” के लिए है?
शेर दहाड़ता है, यह उसकी प्रवृत्ति है। लेकिन क्या मनुष्य को भी दहाड़ने की ज़रूरत है? शिक्षा का उद्देश्य कभी भी ‘दहाड़ना’ नहीं रहा है, बल्कि बौद्धिक विमर्श, आत्मविकास, और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना रहा है। अगर शिक्षा केवल दहाड़ने की प्रक्रिया बन जाए, तो फिर वह विवेक का विकास नहीं, बल्कि उन्माद का प्रशिक्षण बन जाएगी।

शेरनी का दूध पीने से मेमना शेर नहीं बनता
मान लें कि शिक्षा ‘शेरनी का दूध’ है। तो सवाल ये है कि क्या यह दूध पीकर कोई भी दहाड़ सकता है? यदि एक मेमना इसे पी ले, तो क्या वह शेर बन जाएगा? उत्तर है—नहीं। क्योंकि दहाड़ना केवल पोषण से नहीं, स्वभाव और प्रशिक्षण से आता है। शेरनी का दूध तभी असर करेगा, जब पीने वाले में भी शेर जैसी मानसिकता, साहस और आत्मबल होगा।

फिल्मी डायलॉग या वैचारिक फालतूपन?
यह कथन सुनने में जितना जोरदार लगता है, विचार में उतना ही खोखला है। यह किसी घटिया फिल्मी डायलॉग की तरह लगता है, जिसका उद्देश्य केवल जोश पैदा करना है, सोच पैदा करना नहीं। यह कथन शिक्षा की गंभीरता और व्यापकता को सीमित कर देता है—जैसे शिक्षा केवल विरोध करने, गला फाड़ने और ललकारने का माध्यम हो।

वास्तविकता: शिक्षा विवेक देती है, न कि आक्रोश
डॉ. अंबेडकर जैसे महापुरुषों ने कभी शिक्षा को उग्रता या दहाड़ का उपकरण नहीं बताया। उन्होंने कहा—“शिक्षा वह शस्त्र है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं”। यह परिवर्तन विनम्रता से होता है, संवाद से होता है, विद्वता से होता है—not by roaring like a lion, but by reasoning like a human.

शब्दों को भावनाओं से नहीं, विवेक से परखिए
शिक्षा को शेरनी का दूध बताने से पहले यह सोचिए कि क्या उसका उद्देश्य जंगल बनाना है या समाज? क्या आप बच्चों को शेर बनाना चाहते हैं या बुद्धिमान नागरिक? शब्दों का जादू तभी असर करता है जब उसके पीछे सच और सोच हो, न कि सिर्फ गुस्से और ग्लैमर का नशा।

 

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