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नारी सशक्तिकरण तथा पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय बदलाव में उसकी भूमिका – शिव प्रसाद साहू

मोतिहारी/ अशोक बर्मा
यह निर्भ्रांत सत्य है कि जीवन रुपी गाड़ी के दो पहिये पुरुष और नारी अर्थात पुरुष और प्रकृति माता और पिता सृष्टि से आज तक है – जो संसार के समग्र, सम्पूर्ण यथोचित विकास के हेतु है – तो आये दिनों नारियों पर, महिलाओं पर बालिकाओं पर जो दमन, अत्याचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार तथा यौन हिंसा, शोषण की राक्षसी कुप्रवृत्तियों का जो अनियंत्रित आक्रमण होता आया है, हो रहा है – के विरूद्ध में सरकारी स्तर पर, बुद्धिजीवी, सामाजिक चिंतक, प्रबुद्ध वर्ग, चेतनशील व्यक्ति के सहयोग से नारी सशक्तिकरण की आवाज निर्धारित स्तर पर उठी है- सन्दर्भ में पहल तथा निराकरण भी हुए, पर अपेक्षित उपलब्धि नहीं मिली है. क्योंकि पीड़िता को त्वरित तथा सापेक्षिक न्याय नहीं मिल पाता है। साक्ष्य के अभाव में ये मनोरोग बढ़ते ही जा रहे हैं।
वास्तव में नारी सशक्तिकरण के लिए पुरुषों का सहयोग आवश्यक है-फिर भी नारी को स्वयं में निहित, नैसर्गिक, गुण, अर्म, ओज, सत्य की पहचान करनी होगी क्योंकि सबलता, साहसिकता, आत्मिक प्रबलता पतिपरायणता उसके स्वाभाविक गुण है। संयम, पारिवारिक मर्यादा, सहिष्णुता, वैचारिक विनम्रता उसके अमूल्य आभूषण है। नैतिक और चारित्रिक पवित्रता, उत्कृष्ठता उसके भूल उत्स है।
नारी सशक्तिकरण में, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शैक्षणिक, शारीरिक,मानसिक, स्वास्थ्य, उद्योग, विज्ञान,व्यापार, नौकरी – सेवा क्षेत्र में आने से मनोबल बढ़ेगा उससे सम्पूर्ण मानव- संरचना में, देश के विकास में महतिभूमिका से नारी का सम्मान बढ़ेगा।
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका में तो महिलाएं भाग ले रही है, राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद, शिक्षक, प्राध्यापक, अधिवक्ता- बनकर सेवा कर रही है किन्तु ,आधी आबादी के अनुपात में अपेक्षित विकास नहीं हुआ है।
गार्गी और मैत्रेयी विदुषियाँ उदाहरण स्वरूप है। नारी को भौतिक समृद्धि के साथ-साथ नौकरी करने के साथ-साथ, किसी बड़े पद पर रहने के बाद भी अपने को सर्वश्रेष्ठा, अहंकारिणी और स्वेच्छाचारिणी घोषित कर पति और परिवार के श्रेष्ठजनों का अपमान नहीं करना चाहिए।
अर्धनग्नता, विदेशी सभ्यता-संस्कृति को अपनाना, तंग पोशाक, पुरुषों की ही भडकीली, जालीदार वस्त्र पहनना यौन आकर्षण का कारण है।
नारी की सृष्टि हरेक को मुग्ध करने के लिए नहीं है, वह तो एक अपने पति देवता
को सुख देने के लिए ही है, पति ही नारी का गुरु है, पति ही- परमेश्वर है – हां देश- काल परिस्थिति के अनुसार, अपनी, क्षमता, सामर्थ्य के अनुरूप परिस्थितियों से उपजी समस्याओं के समाधान हेतु कोई पग ले सकती व अन्यथा नारी की कीर्त्ति स्फटिक दर्पण के सदृश है जो अत्यंत उज्जवल एवं चमकीला होने पर भी दूसरे के- एक स्वांस से मलिन हो सकती है। भारतवर्ष की स्त्री जाति का गौरव उसके सतित्व और मातृत्व में ही है।
 नारी अबला नहीं , सबला है। भोग्या नहीं पूज्या है, वीरंगना और विदूषी है। विष और नरक की खान नहीं अपितु अमृत की खान है। जितने भी महापुरुष, संत, सन्यासी, साहित्यकार, मनीषी, तपस्वी, चिंतक, उपदेशक, महानेता हुए – माँ के ही उदर से तो आए है। महावीर, रामकृष्ण, गौतम बुद्ध, सूर, तुलसी, कबीर आदि, विवेकानंद, गांधी, व्यास, शुकदेव, सनकादि, सीता, सावित्री, द्रौपदी, मीरा आदि। कहा भी गया है- त्वमेव माता च पिता त्वमेव – अर्थात् पहले माँ (नारी) तब पिता (पुरूष) – राधेश्याम सीताराम, गोरी- शंकर आदि।
  वास्तव में जिस घर, देश में नारियों की पूजा होती है, मान-सम्मान दिया जाता है वहां देवताओं का वास होता है – “यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता।”
लैंगिक असमानतात्रस्त समाज में स्त्री को जानने के लिए न कोई रिसर्च पेपर पढ़ता है, न किताबें जो पितृसत्ता और बाजार दोनों के लिए आसान है।
इसमें सभी का सहयोग, जाति, लिंग, वर्ग, सम्प्रदाय को छोड़कर आगे आना चाहिए तभी नारी सशक्तिकरण का मिशन परिवारिक व्यवस्था या सामाजिक राष्ट्रीय उन्नति, उन्नयन के क्षेत्र में हो सकता है।
                       अन्ततः दिन-प्रति-दिन बढ़ती जनसंख्या से बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक असमानता आर्थिक संकट के बोझ से दबे परिवार को सुखी-संपन, सहयोग करने के लिए नारियों को आर्थिक सबलता प्रदान करनी होगा। गुलामी मानसिकता नैतिक- न्यूनता – हीनता, आर्थिक विपन्नता के कारण महिलाएँ अपना तथा अपने बच्चे, परिवार की उदर-तृप्ति के लिए चाहे अनचाहे कुपथ का शिकार हो जाती है।
    अतः नारी सशक्तिकरण के लिए “बेटी पढ़ाओ” के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव, नैतिकता तथा सरकारी- स्तर पर न्यायलीय त्वरित न्याय की सुदृढ़ व्यवस्था हो।
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