– राजद प्रवक्ता प्रियंका भारती को हाईकोर्ट से नहीं मिली राहत, लाइव डिबेट में जलाई थी मनुस्मृति
सचिन कुमार सिंह।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की प्रवक्ता प्रियंका भारती को इलाहाबाद हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली है। लाइव टीवी डिबेट के दौरान मनुस्मृति के पन्ने फाड़ने के मामले में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने और गिरफ्तारी पर रोक लगाने की उनकी याचिका को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है।
दरअसल इस तरह के नेता अपने वोटबैंक के हिसाब से अपना एजेंडा तय करते हैं। यह एजेंडा हिन्दू धर्म व धार्मिक ग्रंथों के अपमान करने व एक वर्ग विशेष को खुश करने का होता है, इस कारण ये जब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस हद तक नीचता पर उतर आते हैं कि देश की बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावना को आहत करने से भी नहीं कतराते। वह भी तब जब देश संविधान से चल रहा है न कि मनुस्मृति से। इसलिए इस तरह का कृत्य क्षणिक लोकप्रियता व अपने दल के नैरेटिव के तहत किए जाते हैं, जो कतई स्वीकारनीय नहीं होने चाहिए।
प्रियंका भारती, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की पीएचडी छात्रा भी हैं, पर आरोप है कि उन्होंने दो न्यूज चैनलों की लाइव डिबेट में मनुस्मृति के कुछ पन्ने फाड़े थे। इस घटना के बाद अलीगढ़ के रोरावर थाने में 29 दिसंबर 2024 को भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 299 के तहत उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी।
हाईकोर्ट ने इस मामले को संज्ञेय और गैर-जमानती मानते हुए प्रियंका भारती को कोई राहत देने से इनकार कर दिया है। इसका मतलब है कि अब उनकी गिरफ्तारी का मार्ग प्रशस्त हो गया है, और उन्हें जेल जाना पड़ सकता है।
यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुस्मृति एक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ है, जो हिंदू धर्म में सामाजिक और कानूनी नियमों का संग्रह माना जाता है। इस ग्रंथ को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं, विशेषकर इसके कुछ अंशों को महिला विरोधी और जातिवादी माना जाता है।
प्रियंका भारती के इस कदम के बाद सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना और समर्थन दोनों देखने को मिले हैं। कुछ लोगों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सही ठहराया है, जबकि अन्य ने इसे धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला कृत्य बताया है।
कुल मिलाकर, इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद प्रियंका भारती की कानूनी मुश्किलें बढ़ गई हैं, और उन्हें जल्द ही न्यायिक प्रक्रिया का सामना करना पड़ सकता है।
राजनीतिक नीचता की पराकाष्टा
किसी भी धार्मिक या ऐतिहासिक ग्रंथ को सार्वजनिक रूप से जलाना, फाड़ना, या अपमानित करना निश्चित रूप से एक संवेदनशील मुद्दा है। ऐसा करने से समाज में अनावश्यक विवाद और टकराव उत्पन्न होते हैं, जो मूल समस्याओं के समाधान के बजाय नई समस्याएँ खड़ी कर सकते हैं।
क्या यह एक वर्ग या जाति विशेष को खुश करने का प्रयास है?
ऐसे कार्य अक्सर किसी विशेष समुदाय या वर्ग को संतुष्ट करने के लिए किए जाते हैं, विशेषकर जब यह राजनीति से प्रेरित होता है। कई बार राजनीतिक दल और विचारधाराएँ अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ऐसे कदम उठाते हैं, जो सामाजिक विभाजन को और गहरा करते हैं।
क्या यह उचित है?
निश्चित रूप से, यह उचित नहीं कहा जा सकता। कोई भी ग्रंथ अपने समय की सामाजिक व्यवस्था और सोच को दर्शाता है। समय के साथ समाज बदलता है, और यदि किसी ग्रंथ में कोई आपत्तिजनक बात हो भी, तो उसका समाधान तर्क, संवाद और कानून के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि भावनात्मक आक्रोश और प्रतीकात्मक विरोध से।
क्या यह थोथी राजनीति है?
हाँ, यह कहीं न कहीं सस्ती लोकप्रियता का हिस्सा लगता है। यदि किसी को किसी ग्रंथ या परंपरा से आपत्ति है, तो उसे तार्किक बहस और संवैधानिक तरीके से समाधान निकालना चाहिए। सार्वजनिक रूप से ग्रंथों का अपमान करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह समाज में तनाव और कटुता भी बढ़ाता है।
समाधान क्या हो सकता है?
संवाद और शोध – अगर कोई ग्रंथ किसी वर्ग के प्रति भेदभावपूर्ण लगता है, तो उस पर गहन अध्ययन और बहस होनी चाहिए, न कि आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रियाएँ।
संविधान और न्यायिक प्रक्रिया का पालन- अगर किसी किताब में कुछ अनुचित है, तो उसे हटाने के लिए कानूनी मार्ग अपनाया जा सकता है।
राजनीतिक दलों को जिम्मेदारी से काम करना चाहिए- नेताओं और प्रवक्ताओं को समाज में वैमनस्य फैलाने के बजाय तर्कपूर्ण बहस को प्राथमिकता देनी चाहिए।
विचारों की अभिव्यक्ति का मतलब विवाद नहीं
लोकतंत्र में विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार सभी को है, लेकिन इसे संयम और मर्यादा के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए। किसी भी ऐतिहासिक ग्रंथ या धार्मिक पुस्तक को नष्ट करना, केवल राजनीति चमकाने का साधन बनता है और वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास होता है। यदि हमें सच में समाज सुधार करना है, तो हमें तर्क, संवैधानिक तरीके और शांति से समाधान निकालने की दिशा में बढ़ना चाहिए।