यूथ मुकाम खास। सचिन कुमार सिंह
गुजरा जमाना आता नहीं दुबारा। गुजरते लम्हे के साथ रीति-रिवाज, परंपराएं सब बस रस्मी होते जा रहे हैं। न वह पुरानी आत्मीयता दिख रही है, न एक-दूसरे से मिलने-जुलने का सिलसिला। क्यूं थमते जा रहे हैं हम, क्यूं इतने आत्म केन्द्रित होते जा रहे हैं हम। वक्त के किस मोड़ पर आकर हम अपनों से इतने कटते जा रहे हैं। होली….कभी इस पर्व के जिक्र से ही मन में रंग, उमंग व तरंग का ज्वार हिलोरे मारने लगता था। एक माह पहले से अपनों के साथ, हमजोलियों के साथ टोली बनाकर होली की हुल्लड़ करने का सुख तो करीब एक दशक पूर्व तक पूरे शबाब के साथ दिखता था, मगर अब अचानक क्या हो गया। एकाएक होली का उल्लास व रिश्तों की मिठास जैसे खत्म होती जा रही है। अब न फाग न जोगिरा, न घर-घर जाकर फाग व जोगीरा गाने वालों की टोली।
आज होली को जब हमने गांव की सड़कें सूनी देखी तो बरबस वह जमाना याद आ गया, जब अल सुबह हर उम्र के लोग टोलियों में पाक व कीचड़ से एक नई शुरुआत करते थे। फिर घर-घर जाकर रंग लगाने व राह चलते लोगों पर वाटर बैलूर या पिचकारियों की फुहार देकर भागना…फिर शाम को नहा-धोकर, झक कुर्ता-पायजामा पहन हाथों में अबीर लेकर हर घर जाकर बड़े-बुजुर्गों के पैर पर अबीर रखकर आशीर्वाद लेना…फिर उनके आत्मीय मनुहार पर पेट में रत्ती भर जगह नहीं होने पर भी कुछ न कुछ उदरस्थ करने की मजबूरी…बच्चों के माथे पर गुलाल का टीका कर आशीर्वाद देने का सिलसिला…अब क्यों लगभग थम गया है।
शहर को छोड़िए अब तो गांव-गंवई में भी यह परंपरा विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। लोग सिर्फ अपनों के बीच सिमट कर रह गये हैं। रंग खेलने का आनंद भी परिवार तक सिमट कर रह गया है। आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है। कहने को हमारे हाथ में स्मार्टफोन आ गया है। सोशल साइटस की आभासी दुनिया पर ढेर सारे दोस्त हैं, जिनसे पर्व के मौके पर एडवांस में हैप्पी होली, होली की शुभकामनाएं जैसे संदेश अंकित व टंकित कर हम परब का फरज निभा दे रहे हैं बस….मगर धरातल पर सब टूटता व छूटता जा रहा है।
तो आखिर हम पर्व क्यों मना रहे हैं। अरे, पर्व का मतलब ही होता था एक-दूसरे से मिल-जुलना, रिश्तों को एक नई उष्मा देना, मगर क्या अब सच्चे अर्थों में पर्व का वह मकसद सफल हो पा रहा है। क्या सिर्फ मनपसंद व्यंजनों का परिवार संग लुत्फ उठाना ही रह गया है पर्व का मायने। अगर नहीं तो फिर हमसे कहां चूक हो रही है, कभी दो पल सोचा है आपने?
नहीं न, अब तो ऐसा कुछ सोचने की फुर्सत भी नहीं है, क्योंकि अब कोई अतीत के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता। पहले लोगों के घर छोटे होते थे, दिल बड़े होते थे। अब अधिकांश लोगों के घर बड़े हो गये हैं, और घर के आगे की चहारदीवारी ने एक-दूसरे के बीच एक अंजाना बैरियर भी खड़ा कर दिया है। खैर, यह मेरे अपने विचार, मेरे निजी अहसास हो सकते हैं, अगर आप भी ऐसा महसूस करते हैं तो कभी दो पल फुरसत में बैठकर सोचिएगा जरूर, बाकी बातें फिर कभी….।