सचिन कुमार सिंह।
लोकतंत्र में विपक्ष का होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है राष्ट्रीय जिम्मेदारी का बोध। सरकार की नीतियों, फैसलों और विफलताओं पर सवाल उठाना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन बिना प्रमाण देश पर अंतरराष्ट्रीय अपराध का आरोप लगाना न तो लोकतांत्रिक परंपरा है और न ही जिम्मेदार राजनीति।
हाल में बांग्लादेश में हुई हिंसा को लेकर एक वरिष्ठ विपक्षी नेता राशिद अल्वी द्वारा यह कहना कि “चर्चा है कि हत्या भारत ने कराई”, केवल एक बयान नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता, कूटनीति और वैश्विक छवि पर सीधा आघात है। सवाल यह नहीं है कि जांच होनी चाहिए या नहीं, सवाल यह है कि क्या ‘चर्चा है’ जैसे शब्द किसी राष्ट्र पर हत्या जैसे गंभीर आरोप लगाने के लिए पर्याप्त आधार हो सकते हैं?
लेकिन जब न जांच का हवाला हो, न किसी एजेंसी की रिपोर्ट, न किसी अदालत का आदेश, तब ऐसा बयान राजनीतिक आलोचना नहीं, गैर-जिम्मेदाराना आरोप बन जाता है।
ऐसे वक्त में यह भी समझना ज़रूरी है कि भारत जैसे देश की विदेश नीति केवल सरकार की नहीं, पूरे राष्ट्र की नीति होती है। किसी विदेशी घटना के लिए भारत को कटघरे में खड़ा करना, वह भी बिना सबूत, न केवल पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को प्रभावित करता है, बल्कि भारत विरोधी ताकतों को भी हथियार देता है। सवाल उठता है, इसका लाभ किसे मिलता है?
यह भी चिंताजनक है कि आज राजनीति में एक ऐसी प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसमें सरकार के विरोध और देश के विरोध की रेखा धुंधली की जा रही है। सत्ता-विरोध के नाम पर राष्ट्र को बदनाम करना न तो वैचारिक साहस है और न ही लोकतांत्रिक संघर्ष। यह एक खतरनाक फिसलन है।
विपक्ष की भूमिका सत्ता पर अंकुश लगाने की है, लेकिन राष्ट्र की साख को गिरवी रखने की नहीं। कांग्रेस को अपने पार्टी के नेताओं को इस दिशा में निर्देश देना चाहिए कि वे कम से कम सरकार विरोध व देश विरोध के बीच की लक्ष्मण रेखा को तो न पार करें, और न ऐसा बयान दें जिससे विरोधी मुल्कों को एक बैठे बैठाये कूटनीतिक हथियार मिल जाए।
लोकतंत्र आलोचना से मजबूत होता है, लेकिन बिना प्रमाण लगाए गए आरोपों से कमजोर होता है। प्रश्न सरकार का नहीं, देश का है, और देश यह अपेक्षा करता है कि राजनीति चाहे जितनी तीखी हो, राष्ट्रीय हितों की सीमा कभी न लांघी जाए। किसी भी नेता को यह अधिकार नहीं कि वह इस तरह का गैर जिम्मेदाराना व देश विरोधी बयान दे और बांग्लादेश में चल रही हिन्दुओं के खिलाफ हिंसात्मक कार्रवाई का इस हद तक बचाव करें। बांग्लादेश के आंतरिक हालात के लिए देश की विदेश नीतियों को ही कठघरे में खड़े कर दे। यह कोई पहला मामला नहीं जब विपक्षी नेता इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान देकर पाकिस्तान को ही मौका देते रहते हैं, अपना एजेंडा सेट करने का।
कांग्रेस नेता राशिद अल्वी के हवाले से यह कथन सामने आया कि “चर्चा है कि हादी की हत्या एक पूर्व प्रधानमंत्री के लिए भारत ने कराई, यह बिना किसी आधिकारिक सबूत के भारत पर सीधा अंतरराष्ट्रीय अपराध का आरोप है।
ऐसे बयान कानूनी कानूनी दृष्टि से भी संवेदनशील है, किसी नेता को इस तरह की राजनीति करने की छूट नहीं होनी चाहिए। इस तरह के बयान सीधे पाकिस्तान व चीन को प्रोपगंडा करने का हथियार देते हैं।
राशिद अल्वी का बयान राजनीतिक आलोचना नहीं, गैर-जिम्मेदाराना बयान की श्रेणी में आता है। बहराहाल अल्वी का बयान तो जगजाहिर हो गया अब देखना है कि सरकार इस बयान के जवाब में क्या करती है। सरकार को इस बयान का सार्वजनिक रूप से खंडन करना चाहिए और अग्रतर कार्रवाई करनी चाहिए, बहरहाल यह तो हुई सरकार की बात, लेकिन आइए जानते हैं कि क्या वाकई शेख हसीना को भारत में शरण देना केन्द्र सरकार की गलती है या बेहतर विदेश नीति का पर्याय।
कांग्रेस नेता द्वारा बिना प्रमाण भारत पर विदेशी हत्या का आरोप लगाना न लोकतांत्रिक आलोचना है, न जिम्मेदार राजनीति, बल्कि देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाने वाला कृत्य है।
क्या भारत ने शेख हसीना को शरण देकर कूटनीतिक गलती की?
भारत द्वारा बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को संकट के समय मानवीय आधार पर शरण देना कोई अचानक लिया गया भावनात्मक फैसला नहीं माना जाना चाहिए। बल्कि यह एक लंबी रणनीतिक परंपरा का हिस्सा रहा है। फिर भी देश के भीतर विपक्ष और कुछ राजनीतिक वर्गों में इसे लेकर असहजता क्यों है, यही आज का बड़ा सवाल है।
विपक्ष की आपत्ति के पीछे असल कारण क्या हैं?
-विपक्ष की नाराज़गी का पहला कारण राजनीतिक अवसरवाद है। सरकार का कोई भी अंतरराष्ट्रीय फैसला हो, उसे “गलत कूटनीति” बताकर सरकार को घेरना विपक्ष की पुरानी रणनीति रही है। शेख हसीना के मामले में भी यही हो रहा है।
-दूसरा कारण है अंतरराष्ट्रीय छवि की राजनीति। विपक्ष यह तर्क देता है कि हसीना पर मानवाधिकार उल्लंघन, विपक्षी दमन और सत्ता के दुरुपयोग जैसे आरोप हैं, ऐसे में भारत द्वारा उन्हें शरण देना देश की “लोकतांत्रिक छवि” पर सवाल खड़े करता है।
लेकिन यह तर्क अधूरा है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति नैतिकता से नहीं, हितों से चलती है।
शेख हसीना भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण रही हैं?
-शेख हसीना का शासन भारत के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अनुकूल रहा है।
-भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों पर उन्होंने सख्त कार्रवाई की
-उत्तर-पूर्व भारत की सुरक्षा में बांग्लादेश की भूमिका मजबूत हुई
-सीमा, व्यापार और कनेक्टिविटी में सहयोग बढ़ा
-चीन और पाकिस्तान के प्रभाव को बांग्लादेश में सीमित रखा
-यानी साफ शब्दों में कहें तो हसीना भारत की “सिक्योरिटी एसेट” रही हैं, न कि बोझ।
क्या शरण देना कूटनीतिक भूल थी?
नहीं। कूटनीति में शरण देना समर्थन नहीं, बल्कि संवाद का पुल बनाए रखना होता है।भारत ने इससे पहले भी, दलाई लामा को शरण दी, अफगान नेताओं को सहारा दिया
श्रीलंका संकट में संतुलन साधा। इनमें से किसी फैसले को आज कूटनीतिक भूल नहीं कहा जाता। फिर हसीना के मामले में ही क्यों?
असल बात यह है कि अगर भारत हसीना को शरण नहीं देता, तो वे सीधे चीन या किसी पश्चिमी ताकत की शरण में जातीं, जिससे भारत का रणनीतिक प्रभाव कमजोर होता।
क्या इससे भारत बांग्लादेश की जनता के खिलाफ खड़ा हो गया?
यह कहना एकतरफा नैरेटिव होगा कि शेख हसीना को शरण देने से बांग्लादेश की जनता भारत के खिलाफ हो गई, क्योंकि इसका कोई पैमाना नहीं कि बांग्लादेश की जनता में वाकई शेख हसीना इतना अलोकप्रिय हो गई हो, क्योंकि तख्तापलट के पहले उन्होंने वोटिंग की बदौलत सत्ता में वापसी की थी, जिसे पाकिस्तान परस्त व कट्टरपंथी ताकतों ने पसंद नहीं किया। असल में भारत का विरोध कट्टरपंथी कर रहे हैं, बहाना जो हो, और विरोध की राजनीति करने वाला विपक्ष भी इसी ट्रैक पर चल रहा है, जो देश के लिए सही नहीं। क्योंकि भारत ने किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि स्थिरता और क्षेत्रीय संतुलन का पक्ष लिया है। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन पड़ोसी देश से रिश्ते स्थायी हितों पर टिके होते हैं।सच तो यह है कि बांग्लादेश का कमजोर शासन ही इस हिंसा का जिम्मेदार है।
भारत ने न तो बांग्लादेश की राजनीति में हस्तक्षेप किया है, न ही किसी सत्ता परिवर्तन का विरोध किया है, केवल एक संकटग्रस्त नेता को मानवीय आधार पर अस्थायी संरक्षण दिया है।
विपक्ष का हसीना विरोध दरअसल सरकार विरोध का विस्तार है, न कि कोई गहरी कूटनीतिक चिंता। भारत ने जो किया, वह भावुकता नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से लिया गया रणनीतिक फैसला था।
कूटनीति में दोस्त-दुश्मन स्थायी नहीं होते, लेकिन राष्ट्रीय हित हमेशा स्थायी होते हैं। और इस कसौटी पर देखें तो शेख हसीना को शरण देना भारत की मजबूरी नहीं, उसकी सूझबूझ थी।
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