– हर हिंदू त्योहार में शुद्धता व पवित्रता का महत्वपूर्ण स्थान, मांस भक्षण व शराब आधुनिक परिवर्तनों का दुष्परिणाम
सचिन कुमार सिंह। संपादक
हर साल एक अजब सी परिपाटी देखने को मिलती है, कुछ ढेर ज्ञानी लोग हर हिंदू त्योहार पर अपने कुतर्की ज्ञान की दुकान खोलकर अनाप-शनाप बकना शुरू कर देते हैं। उस पर तुक्का कि वे खुद को परम ज्ञानी समझते हैं, त्योहार मनाने वाले लोगों को पिछड़ी सोच व पाखंडी तक बता देते हैं। कोई होली पर पानी बचाने की नसीहत देता मिला जाएगा तो कोई होलिका दहन को ही अपने कुतर्कों के बाण से गलत साबित करने में लग जाता है। इस साल भी सोशल मीडिया पर चर्चित होने के लिए कुछ परमज्ञानी होलिका दहन में भी फेमिनिज्म वाला एंगल ढूंढ लेते हैं। और इस परंपरा को महिला विरोधी बताने लगते हैं। इनके अनुसार होलिका दहन किसी महिला की मृत्यु पर जश्न मनाने का उत्सव है, मगर इन्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इसे गलत ठहराने वाले लोग इसके गहरे अर्थ को नजरअंदाज कर देते हैं।
होलिका, राजा हिरण्यकश्यप की बहन थी, जिसने अपने भतीजे, भक्त प्रह्लाद को जलाने के लिए छलपूर्वक अग्नि में बैठाया था। लेकिन ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे, जबकि होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। यह कथा यह दर्शाती है कि अधर्म, अहंकार और अन्याय का अंत निश्चित है, चाहे वह किसी भी रूप में हो।
महत्व
बुराई पर अच्छाई की जीत- यह त्योहार यह संदेश देता है कि अधर्म और अन्याय को सहारा देने वाले अंततः नष्ट हो जाते हैं।
अहंकार का अंत – हिरण्यकश्यप और होलिका की कहानी यह बताती है कि अहंकार और अन्याय कभी भी स्थायी नहीं होते।
समाज में नैतिकता की शिक्षा – यह त्योहार सत्य, भक्ति और सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
किसी महिला की मृत्यु का जश्न मनाने की बात करना पूरी तरह से गलत है, क्योंकि यह त्योहार नारी विरोधी नहीं, बल्कि अधर्म विरोधी है। इसे एक महिला के खिलाफ नहीं, बल्कि बुराई के अंत के प्रतीक के रूप में देखना चाहिए।
ऐसे तर्क देने वाले लोग होलिका दहन के गहरे सांस्कृतिक और धार्मिक अर्थ को समझने में चूक कर रहे हैं। यह किसी महिला के प्रति हिंसा या प्रतिशोध का उत्सव नहीं है, बल्कि यह अधर्म, छल और अहंकार के नाश का प्रतीक है।
क्या यह किसी महिला को जलाने का पर्व है?
बिल्कुल नहीं। होलिका का दहन इसलिए होता है क्योंकि उसने अपने भतीजे प्रह्लाद को छलपूर्वक जलाने की कोशिश की थी। वह एक महिला नहीं, बल्कि अधर्म और अन्याय की प्रतीक थी। इस दृष्टि से देखें तो होलिका दहन बुराई के अंत का प्रतीक है, न कि किसी महिला को जलाने की परंपरा।
अगर यह महिला-विरोधी होता, तो प्रह्लाद क्यों बचते?
अगर यह केवल किसी महिला को जलाने की बात होती, तो भगवान प्रह्लाद को बचाने के लिए दैवीय हस्तक्षेप क्यों करते? यहाँ पर असली बात यह है कि सच्चाई और भक्ति की रक्षा होती है, जबकि छल और अधर्म का नाश होता है।
होलिका दहन का आधुनिक संदेश
-बुराई और अन्याय का अंत निश्चित है।
-सत्य और भक्ति की हमेशा जीत होती है।
-अहंकार और धोखे का कोई स्थान नहीं होता।
इसलिए जो लोग इसे किसी महिला की हत्या का उत्सव बताकर भ्रम फैलाते हैं, वे इसकी मूल भावना को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं। होलिका दहन लिंग-विशेष से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह नैतिकता और धर्म की विजय का उत्सव है।
सोशल मीडिया पर चर्चित होने का शौक पाले लोग करते हैं ऐसी बकवास
कई बार तथाकथित बुद्धिजीवी या कुतर्की ज्ञानियों का मकसद सिर्फ पर्वों की महत्ता को कम करना, खुद को चर्चा में लाना और आधुनिकता का दिखावा करना होता है। वे बिना गहराई से समझे, सनातन परंपराओं को गलत साबित करने की कोशिश करते हैं ताकि वे दूसरों को यह दिखा सकें कि वे तर्कशील या नवाचारवादी हैं।
ऐसे लोग ऐसा क्यों करते हैं?
चर्चा में बने रहने के लिए: आजकल कई लोग किसी भी परंपरा या त्योहार को गलत ठहराकर सोशल मीडिया और बहसों में ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं।
आधुनिकता का दिखावा: कुछ लोग यह दिखाना चाहते हैं कि वे पुराने रीति-रिवाजों से अलग और ज्यादा तर्कशील हैं, इसलिए बिना किसी ठोस आधार के परंपराओं का विरोध करते हैं।
सनातन संस्कृति को कमजोर करने का प्रयासः कुछ विचारधाराएँ भारतीय संस्कृति और परंपराओं को कमजोर करने के लिए तर्कों का भ्रमजाल फैलाती हैं।
अधूरी जानकारी और पूर्वाग्रह: बिना संपूर्ण ज्ञान के, कुछ लोग आधी-अधूरी बातें पढ़कर निष्कर्ष निकालते हैं और भ्रम फैलाते हैं।
ऐसे कुतर्कों का उत्तर क्या होना चाहिए?
सटीक और तार्किक जवाब: उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से समझाया जाए कि होलिका दहन किसी महिला के जलाने का उत्सव नहीं, बल्कि बुराई के अंत का प्रतीक है।
संस्कृति का सही अध्ययनः सनातन धर्म की परंपराओं का गहराई से अध्ययन करने से समझ आएगा कि वे केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण हैं।
इन बहसों में उलझने की बजाय सही प्रचार: हमें समाज में सकारात्मक तरीके से त्योहारों का वास्तविक महत्व बताना चाहिए, न कि इन लोगों की अनर्गल बातों में उलझना चाहिए।
ऐसे कुतर्क करने वाले लोग अपनी छवि चमकाने और सनातन परंपराओं को कमजोर करने के लिए बिना समझे-समझाए विवाद खड़ा करते हैं। लेकिन हमें धैर्य और सही ज्ञान के साथ इस तरह की भ्रामक सोच का खंडन करना चाहिए। होलिका दहन सिर्फ एक महिला का अंत नहीं, बल्कि अधर्म, अहंकार और छल के अंत का प्रतीक है!
मांस भक्षण व शराब होली का दूषित रूप, हिन्दू त्योहारों में यह परंपरा नहीं रही
हिंदू पर्वों में शुद्धता और पवित्रता का विशेष स्थान है, जहां हिंसा या मांस भक्षण को प्रायः अनुचित माना जाता है। हालांकि, हाल के वर्षों में होली के दौरान शराब और मांस के सेवन की प्रथा बढ़ी है, जो कि पारंपरिक मान्यताओं के विपरीत है।
होली में शराब और मांस सेवन की प्रथा का उद्भव
पारंपरिक रूप से, होली रंगों, संगीत, नृत्य और सामाजिक मेलजोल का त्योहार है। हालांकि, आधुनिक समय में, विशेषकर पिछले कुछ दशकों में, शराब और मांस के सेवन की प्रथा बढ़ी है। यह परिवर्तन समाज में बदलती जीवनशैली, पश्चिमी प्रभाव और आधुनिकता के साथ जुड़ने की चाहत के कारण हो सकता है। आचार्य प्रशांत के अनुसार, यह प्रवृत्ति पिछले दस-बीस वर्षों में अधिक देखी गई है, जहां होली पर शराब और मांस का सेवन सामान्य होता जा रहा है।
पारंपरिक दृष्टिकोण
हिंदू धर्म में अहिंसा परमो धर्मः का सिद्धांत महत्वपूर्ण है, जो सभी प्राणियों के प्रति करुणा और दया पर जोर देता है। वेदों में भी हिंसा और मांस भक्षण को अनुचित माना गया है, और अहिंसा को श्रेष्ठ धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है।
आजकल, होली के दौरान ठंडाई और भांग के स्थान पर शराब और गांजा जैसी नशाखोरी का प्रचलन बढ़ रहा है, जिससे त्योहार के माहौल में उन्माद और अशोभनीय घटनाएं बढ़ गई हैं।
होली के दौरान शराब और मांस का सेवन आधुनिक परिवर्तनों का परिणाम है, जो पारंपरिक हिंदू मान्यताओं के विपरीत है। यह आवश्यक है कि हम अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का सम्मान करें और त्योहारों को उनकी मूल भावना के साथ मनाएं, जिससे समाज में शुद्धता, पवित्रता और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन हो सके।
होली की परंपरा का आरंभ और उसका मूल उद्देश्य
होली का त्योहार भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। यह वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है और समाज में उल्लास, प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा देता है। पारंपरिक रूप से, होली रंगों, संगीत, नृत्य और सामाजिक मेलजोल का पर्व है, जो समाज के सभी वर्गों को एक साथ लाता है।
मांस भक्षण की परंपरा का समावेश
पारंपरिक हिंदू मान्यताओं में, विशेषकर त्योहारों के दौरान, शाकाहार को प्राथमिकता दी जाती है, और मांस भक्षण को अनुचित माना जाता है। हालांकि, आधुनिक समय में, विशेषकर पिछले कुछ दशकों में, होली के दौरान मांस और शराब के सेवन की प्रथा बढ़ी है। यह परिवर्तन समाज में बदलती जीवनशैली, पश्चिमी प्रभाव और आधुनिकता के साथ जुड़ने की चाहत के कारण हो सकता है।
होली भारत का एक प्राचीन और प्रमुख त्योहार है, जो वसंत ऋतु के आगमन और फाल्गुन पूर्णिमा के अवसर पर मनाया जाता है। यह पर्व रंगों, उल्लास, और सामाजिक समरसता का प्रतीक है, जिसका उल्लेख प्राचीन धार्मिक ग्रंथों और साहित्य में मिलता है।
होली का ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भरू
प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखरू होली का उल्लेख श्रत्नावलीश् जैसे संस्कृत साहित्य में मिलता है, जो सातवीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन द्वारा रचित है। इसमें होली को श्रंगश् के त्योहार के रूप में वर्णित किया गया है, जहां लोग रंगों से खेलते हैं और उत्सव मनाते हैं।
पौराणिक कथाएँ
प्रह्लाद और होलिका की कथारू यह कथा बताती है कि हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका, जो आग में न जलने का वरदान प्राप्त थी, ने भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी। लेकिन ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे और होलिका जलकर भस्म हो गई। इस घटना की स्मृति में होलिका दहन की परंपरा है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
राधा-कृष्ण की लीलारू ब्रज क्षेत्र में होली राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं से जुड़ी है। कृष्ण, जो अपने सांवले रंग के कारण चिंतित थे, ने यशोदा माता से पूछा कि राधा उन्हें पसंद करेंगी या नहीं। यशोदा ने सुझाव दिया कि वे राधा के चेहरे पर रंग लगा सकते हैं। इस लीला की स्मृति में रंग खेलने की परंपरा है।
सांस्कृतिक महत्वरू होली सामाजिक समरसता और भाईचारे का पर्व है, जहां लोग आपसी मतभेद भूलकर एक-दूसरे को रंग लगाते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं। यह त्योहार समाज में एकता और प्रेम को बढ़ावा देता है।
होली का इतिहास गहरा और विविधतापूर्ण है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों से समृद्ध है। यह पर्व हमें बुराई पर अच्छाई की विजय, प्रेम, और सामाजिक समरसता का संदेश देता है, जो आज भी प्रासंगिक है।
होली के दौरान मांस और शराब का सेवन आधुनिक परिवर्तनों का परिणाम है, जो पारंपरिक हिंदू मान्यताओं के विपरीत है। यह आवश्यक है कि हम अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का सम्मान करें और त्योहारों को उनकी मूल भावना के साथ मनाएं, जिससे समाज में शुद्धता, पवित्रता और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन हो सके।
होली का पारंपरिक और सांस्कृतिक महत्व
होली भारत का एक प्राचीन त्योहार है, जो वसंत ऋतु के आगमन का उत्सव है। यह पर्व रंगों, संगीत, नृत्य, और सामाजिक मेलजोल का प्रतीक है, जहां लोग आपसी मतभेद भूलकर एक-दूसरे के साथ प्रेम और भाईचारे का प्रदर्शन करते हैं। पारंपरिक रूप से, होली का उद्देश्य समाज में एकता और समरसता को बढ़ावा देना है।
आधुनिक समय में होली के दौरान अनुचित व्यवहार
दुर्भाग्यवश, आधुनिक समय में होली के दौरान कुछ स्थानों पर अश्लीलता, शराब का अत्यधिक सेवन, और महिलाओं के साथ अनुचित व्यवहार जैसी कुरीतियाँ देखने को मिलती हैं। यह प्रवृत्ति त्योहार की मूल भावना के विपरीत है और समाज में नकारात्मक प्रभाव डालती है।
समाज की भूमिका और जिम्मेदारी
समाज के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी है कि वे त्योहारों को उनकी मूल भावना के साथ मनाएं और किसी भी प्रकार के अनुचित व्यवहार से बचें। महिलाओं के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करना और उनकी गरिमा का संरक्षण करना हमारी सांस्कृतिक और नैतिक जिम्मेदारी है।
निष्कर्ष
होली का वास्तविक रूप प्रेम, उल्लास, और सामाजिक समरसता का है। अश्लीलता, अनुचित मजाक, और महिलाओं के प्रति असम्मानजनक व्यवहार इस पर्व की पवित्रता को ठेस पहुँचाते हैं। आवश्यक है कि हम सभी मिलकर होली को उसकी वास्तविक भावना के साथ मनाएं और समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण करें।