-ललित-कला की पढ़ाई के लिए जारी है कला-प्रतिभाओं का पलायनः प्रसाद रत्नेश्वर
मोतिहारी। अशोक वर्मा
बिहार के विश्वविद्यालयों की लापरवाही कलाकारों पर भारी पड़ रही है। अवसर की तलाश में कला-प्रतिभाएँ महानगरों की ख़ाक छान रही हैं । वहीं राज्य का करोडों रुपया राज्य के बाहर समकक्ष उपाधि देने वाली संस्थाओं के पास जा रहा है उक्त बातें जिले के जाने-माने रंगकर्मी एवं 28 चंपारण महोत्सव संपन्न करके कीर्तिमान स्थापित करने वाले प्रसाद रत्नेश्वर ने कही।
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र, कोलकाता के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में बिहार से सदस्य एवं वरिष्ठ रंगकर्मी प्रसाद रत्नेश्वर बताते हैं कि बिहार सरकार ने ललित कला-संस्कृति के समुचित विकास एवं विश्वविद्यालय स्तर पर कला-शिक्षण के लिए पटना, मगध, भागलपुर एवं मिथिला विश्वविद्यालय में ललित कला संकाय की स्थापना करने का निर्णय वित्तीय वर्ष 1981-82 में ही लिया था।
इसके संचालन हेतु राज्य सरकार ने प्रत्येक विश्वविद्यालय को वित्तीय वर्ष 1981-82 में ₹ 47,400/- अर्थात पाँच विवि के लिए ₹ 2,37,000/-( दो लाख सैंतीस हज़ार रुपये) मात्र के साथ-साथ पदों का भी सृजन किया।
इस सम्बन्ध में बिहार सरकार शिक्षा विभाग के पत्रांक जू/एम/-234/80 शि . 55 दिनांक 30.03.1982 द्वारा सरकार के तत्कालीन अपर सचिव,बिहार श्री ए.के. विश्वास ने वित्त विभाग, पटना के द्वारा महालेखाकार, राँची को पत्र भेजकर सरकार के निर्णय से उन्हें अवगत कराते हुए स्वीकृत राशि के विकलन हेतु पदानुसार प्राधिकार पत्र निर्गत करने को लिखा था।
राज्य सरकार के उक्त निर्णय व आदेश का अनुपालन केवल ललित नारायण मिथिला विवि,दरभंगा और उससे विभाजित होकर बने बी.एन. मंडल विवि, मधेपुरा में ललित कला संकाय स्थापित है। इसके फलस्वरूप यहाँ स्नातकोत्तर व स्नातक स्तर पर नाट्य शास्त्र तथा संगीत की पढ़ाई शुरु हुई।
स्वयं ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से नाट्य शास्त्र में एम.ए. प्रसाद रत्नेश्वर ने बताया कि जब वे वर्ष 2000 में बिहार संगीत नाटक अकादमी की कार्यकारिणी के सदस्य बने तो उन्होंने अकादमी की ओर से बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में नाटक की पढ़ाई और राज्य में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली का क्षेत्रीय केंद्र स्थापित करने की आवाज़ बुलंद की थी। वे कहते हैं बिहार में लाखों की संख्या में नाटक एवं संगीत विधा से जुड़े कलाकार हैं, जिन्हें उचित प्रशिक्षण की जरूरत है। अध्ययन-अध्यापन के अभाव में अनेक लोक नाट्य शैलियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। उचित प्रशिक्षण व मार्गदर्शन के अभाव में स्वस्थ संस्कृति के संवहन में बाधा आ रही है और मंचों पर अपसंस्कृति हावी है। दूसरी ओर कला- शिक्षण हेतु महानगरों की ओर पलायन हो रहा है। मजबूरी में कला-पिपासु प्रयागराज एवं चंडीगढ़ से अपूर्ण प्रशिक्षण व समकक्ष की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं।राज्य से प्रतिवर्ष करोडों रुपये बाहर जा रहे हैं। नाट्यकला का शिक्षण उक्त संस्थाओं में भी नहीं होता।
राज्य में दो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। महात्मा गाँधी केंद्रीय विवि,मोतिहारी के संस्थापक कुलपति ने रंगकर्मियों की माँग पर अपने विवि में रंगमंच की पढ़ाई की पहल की थी। इस बीच उनका तबादला हो गया।
विश्वविद्यालयों द्वारा नाटक की पढ़ाई से बिहार का रंगमंचीय स्वप्न साकार होगा। इसकी 40 वर्षों से प्रतीक्षा की जा रही है।