सचिन कुमार सिंह।
“जहाँ खून बहता हो, वहाँ खेल नहीं हो सकता।
खेल और खून एक साथ नहीं बह सकते।”
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन केवल पाकिस्तान के साथ क्रिकेट पर टिप्पणी नहीं थी, बल्कि एक नैतिक सिद्धांत था कि खेल, व्यापार और मनोरंजन तभी तक सार्थक हैं, जब तक मानवता सुरक्षित है। आज यही सिद्धांत बांग्लादेश के संदर्भ में फिर खड़ा होकर सवाल पूछ रहा है। जब बांग्लादेश की सड़कों पर हिंदू युवकों को पीट-पीटकर मार दिया जाता है, सरेआम जलाया जाता है, मंदिरों पर हमले होते हैं, तब भारत के सबसे बड़े खेल मंच पर उसी देश के खिलाड़ी पर करोड़ों लुटाना क्या एक सामान्य व्यावसायिक निर्णय भर है? या यह एक ऐसा संदेश भी देता है कि मानवाधिकार का सवाल खेल के शोर में दब सकता है?
बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं। सरेआम पीट-पीटकर हत्या, फिर शव को आग के हवाले करने जैसी घटनाएँ सामने आ रही हैं। यह कोई छिटपुट अपराध नहीं, बल्कि एक खतरनाक पैटर्न है, जिसमें राजनीतिक उबाल का बदला बार-बार सबसे कमजोर समुदाय से लिया जाता है।
ऐसे समय में आईपीएल फ्रेंचाइज़ी कोलकाता नाइट राइडर्स द्वारा एक बांग्लादेशी खिलाड़ी को करोड़ों रुपये में ख़रीदना केवल खेल का सौदा नहीं रह जाता, बल्कि संवेदनहीन प्रतीक बन जाता है। सवाल खिलाड़ी की प्रतिभा पर नहीं, सवाल उस संकेत पर है जो भारत का सबसे बड़ा खेल मंच देता है। इसका विरोध भी हो रहा है, मगर क्या लगता है कि इससे जिम्मेदार लोगों की कान पर कोई जूं रेंग सकेगी।
यह तर्क दिया जा सकता है कि बीसीसीआई खिलाड़ी नहीं खरीदता,नीलामी फ्रेंचाइज़ी का व्यावसायिक निर्णय है, खेल को राजनीति से अलग रखना चाहिए,कानूनी रूप से यह तर्क सही हो सकता है, लेकिन नैतिक रूप से अधूरा है।
बीसीसीआई केवल आयोजक नहीं, बल्कि भारतीय क्रिकेट का नैतिक संरक्षक भी है। जब सुरक्षा कारणों से कुछ देशों के साथ खेल सीमित किए जा सकते हैं, तो मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघन के समय नैतिक दिशा-निर्देश तय करना क्यों असंभव माना जाता है?
यह भी ध्यान देने योग्य है कि बीसीसीआई केवल एक टीम नहीं, बल्कि एक प्रभावशाली ब्रांड है, जिसके मालिकाना ढाँचे में सार्वजनिक जीवन के चर्चित चेहरे शामिल हैं। उनकी चुप्पी यह सवाल उठाती है कि क्या संवेदना भी अब कॉरपोरेट जोखिम बन चुकी है?
भारत ने 1971 में बांग्लादेश के लिए हज़ारों सैनिकों की क़ुर्बानी दी, करोड़ों शरणार्थियों का बोझ उठाया। आज उसी भूभाग में हिंदुओं पर हो रही हिंसा पर अगर खेल संस्थान यह कहकर पल्ला झाड़ लें कि “यह हमारा विषय नहीं”, तो यह केवल कूटनीतिक नहीं, नैतिक विफलता भी है। समाधान किसी खिलाड़ी को कटघरे में खड़ा करना नहीं है। समाधान यह है कि खेल संस्थाएँ नैतिक संवेदनशीलता दिखाएँ, फ्रेंचाइज़ियाँ समय और संदर्भ को समझें और यह स्पष्ट संदेश जाए कि मानवाधिकार सौदेबाज़ी का विषय नहीं।
अटल बिहारी वाजपेयी का कथन आज फिर याद दिलाता है कि राष्ट्र केवल स्टेडियम की तालियों से नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से पहचाना जाता है।
यह भी सवाल उठता है कि केकेआर के सह-मालिक और प्रभावशाली सार्वजनिक चेहरे इस मुद्दे पर पूरी तरह मौन क्यों हैं। कोई यह नहीं कह रहा कि खिलाड़ी दोषी है, लेकिन इतना तो पूछा ही जा सकता है कि क्या फ्रेंचाइज़ी ने संवेदनशील समय में कोई नैतिक संकेत देने पर विचार किया?
खेल को राजनीति से अलग रखने का तर्क बार-बार दिया जाता है, लेकिन यह तर्क तब कमजोर पड़ जाता है जब खिलाड़ी भारत में कमाता है, मंच भारत का होता है, दर्शक भारत के होते हैं और पीड़ा झेलने वाला समुदाय भी भारत से सांस्कृतिक रूप से जुड़ा होता है, तब खेल पूरी तरह “निरपेक्ष” नहीं रह जाता।
यह मुद्दा किसी देश या समुदाय के खिलाफ़ नहीं, बल्कि दोहरे मानदंडों के खिलाफ़ है। जब दुनिया के कुछ संघर्षों पर खिलाड़ी, कलाकार और संस्थाएँ खुलकर बोलती हैं, तो पड़ोस में हो रहे अत्याचारों पर सुविधाजनक चुप्पी क्यों?
भारत ने 1971 में बांग्लादेश के लिए हज़ारों सैनिकों की क़ुर्बानी दी, करोड़ों शरणार्थियों का बोझ उठाया। आज उसी क्षेत्र में हिंदुओं पर हो रही हिंसा पर अगर खेल संस्थान भी आँखें मूँद लें, तो यह केवल कूटनीतिक नहीं, नैतिक विफलता भी कहलाएगी।
समाधान किसी खिलाड़ी को निशाना बनाना नहीं है। समाधान यह है कि
बीसीआई नैतिक दिशानिर्देश तय करे। लेकिन मुझे लगता है भारत में ज्यादातार लोगों की संवेदनाएं तभी जगती हैं जब घटना का विक्टिम उनके एजेंडा को सूट करने वाली बिरादरी से होता है। आखिर एक ही तरह की घटनाओं पर दोहर व्यवहार क्यों। इसका जवाब कौन देगा?


























































