✍️ सचिन कुमार सिंह
बिहार बदलने के बड़े वादों और लंबी पदयात्रा के सहारे उभरी जन सुराज पार्टी को चुनाव परिणाम ने करारा झटका दिया है। प्रशांत किशोर की पार्टी न सिर्फ अधिकांश सीटों पर मुकाबले से बाहर रही, बल्कि बड़ी संख्या में उम्मीदवार जमानत तक नहीं बचा सके।
अब हार के बाद जन सुराज ने पंचायत से प्रदेश स्तर तक पूरा संगठन भंग कर दिया, और 45 दिनों के भीतर नए ढांचे के गठन की घोषणा की है।
यह कदम सुधार की दिशा है या हार का औपचारिक स्वीकार—यह बहस का विषय बना हुआ है। बिहार बदलने की नीति को लेकर एक नई पार्टी के साथ बिहार की राजनीति में एंट्री मारने वाले जन सुराजी प्रशांत किशोर को बिहार में अप्रत्याशित रूप से करारी हार मिली है। पार्टी का मौजूदा सूरते हाल यह रहा कि अधिकांश सीटों पर मुकाबले की बात तो दूर उनके प्रत्याशी जमानत भी नहीं बचा सके।
अब इस हार का ठीकरा भले ही पीके दस हजारी स्कीम व जंगलराज के डर पर फोड़े, मगर असल हाल यह है कि उनकी पार्टी जितनी मीडिया हाइप क्रियेट करती रही, जमीनी स्तर पर उतनी ही इसकी बुनियाद खोखली रही। फिलहाल जन सुराज पार्टी ने बड़ा कदम उठाते हुए पंचायत से लेकर प्रदेश स्तर तक के पूरे संगठन को भंग कर दिया। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक पटना के शेखपुरा हाउस में हुई, जिसमें प्रदेश अध्यक्ष मनोज भारती और पार्टी के सूत्रधार प्रशांत किशोर दोनों मौजूद थे।
निर्णय के अनुसार अब 45 दिनों के भीतर नए सिरे से सक्रिय और प्रभावी संगठन तैयार किया जाएगा। खैर, यह तो समय बताएगा कि आने वाले समय में प्रशांत किशोर बिहार में अपनी पार्टी को किस स्तर पर स्थापित करने का प्रयास करते हैं या फिर सिर्फ मीडिया के सहारे हवा बनाने में लगे रहेंगे। जबकि एक नई पार्टी जिस मुद्दे के साथ बिहार चुनाव में कूदी थी, उसने खासकर युवा पीढी को अपील की थी, जो भी 3-4 प्रतिशत लोगों का वोट मिला है, उनमें यहीं युवा पीढ़ी के लोग है, मगर अधिकांश मतदाताओं ने जनसुराज को फिलहाल नकार दिया। अब उन प्रमुख कारणों पर गौर करते हैं जिस कारण जन सुराज नाम का बुलबुला, चुनाव परिणाम के दौरान फूट गया और नई तरह की राजनीति का सपना मीडिया के आर्काइव का मामला बनकर रह गया।
मीडिया में हाइप, जमीन पर हकीकत कमजोर
जन सुराज ने संगठन विस्तार का खूब दावा किया, लेकिन जमीनी सच्चाई उलट रही—
हजारों समितियाँ कागज पर बन गईं, पर प्रशिक्षण व स्थायी कैडर का अभाव रहा।
बूथ स्तर तक पहुँचने में पार्टी नाकाम रही, जबकि राजद–जेडीयू–बीजेपी जैसे दल वर्षों से अपने ढांचे को पकाए हुए हैं।
संगठन की मजबूती का नैरेटिव मीडिया में तो गूंजा, पर जमीन पर असर नगण्य रहा।
रणनीति में खामियाँ: नेता कम ‘मसीहा’ अधिक बनते दिखे पीके
प्रशांत किशोर ने खुद को एक जननेता से ज्यादा “समाधान वाला मसीहा” प्रोजेक्ट किया
पलायन व बेरोजगारी दो महीनों में खत्म कर देने जैसे दावे अवास्तविक लगे।
तीन वर्षों की यात्रा वोट में तब्दील नहीं हो सकी।
टिकट चयन में गंभीर कमजोरियाँ रहीं—कई ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाया गया जो अपने इलाके में अपरिचित थे।
जनता को भरोसेमंद राजनीति चाहिए थी, चमत्कार नहीं। यही सबसे बड़ी रणनीतिक चूक साबित हुई।
जंगलराज नैरेटिव और वोट का ध्रुवीकरण
पीके ने खुद भी स्वीकार किया कि “जंगलराज के डर” ने उनका संभावित वोट बैंक एनडीए की ओर मोड़ दिया।
लालू-राज को नकार चुकी पीढ़ी ने तेजस्वी को भी उसी छवि से जोड़ा, जिससे अपराध बनाम बदलाव की लड़ाई में झुकाव NDA की ओर बना रहा।
जन सुराज राजद विरोधी वोट को आकर्षित नहीं कर पाई—वह वोट सीधे NDA की झोली में चला गया।
-दूसरी ओर राजद समर्थकों ने जन सुराज को “बीजेपी का सॉफ्ट वर्जन” मान लिया।
इस दोतरफा अविश्वास से पीके का पूरा गणित चौपट हो गया।
10,000 रुपये वाली चर्चा और संगठन की जड़ें
लंबे समय तक सोशल मीडिया पर यह चर्चा चलती रही कि जन सुराज कार्यकर्ताओं को नियमित 10,000 रुपये मिलते हैं।
यह रिश्वत नहीं थी, पर इससे एक संदेश ज़रूर गया—
संगठन विचार से नहीं, पैसों के सहारे खड़ा किया जा रहा है।
ऐसे ढांचे चुनावी दबाव में टिक नहीं पाते।
क्या नया संगठन जन सुराज को राजनीतिक जमीन देगा?
45 दिनों में नया ढांचा बनाने की घोषणा निश्चित रूप से बड़ा कदम है।
लेकिन दो सवाल अहम हैं—
क्या जन सुराज “मीडिया आधारित आंदोलन” से निकलकर “कैडर आधारित राजनीतिक दल” बन पाएगा?
क्या पीके अपनी शैली को रणनीतिकार से एक जननेता के रूप में ढाल पाएंगे?
युवा वोटरों के एक हिस्से का समर्थन जरूर मिला, पर 3–4 प्रतिशत वोट के सहारे टिकाऊ राजनीति खड़ी नहीं की जा सकती।
राजद–जेडीयू–बीजेपी जैसे दलों के बीच जन सुराज अभी भी स्पष्ट विकल्प बनने से बहुत दूर है। संगठन भंग करने का फैसला निस्संदेह बड़ा है। अब देखना यह है कि
यह एक नई शुरुआत की कोशिश है, या बिखराव के बाद की मजबूरी?
जिस “नई राजनीति” का सपना दिखाया गया था, वह अभी भी हवा और हकीकत के बीच फंसा हुआ दिखाई देता है।






















































