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राम मंदिर पर राजनीति का शोर, दशकों की धार्मिक राजनीति पर सन्नाटा ,कांग्रेस के दोहरे मानदंड

“कांग्रेस को राम मंदिर दिखता है, अपना अतीत नहीं, सेक्युलरिज़्म की यह परिभाषा कितनी ईमानदार?”

सचिन कुमार सिंह।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राम मंदिर पर धर्मध्वज फहराने के मामले को तूल देने की बहुत कोशिश हुई। कई विपक्षी नेताओं ने इसे प्रधानमंत्री की गरिमा के खिलाफ बताया और कहा कि एक धर्मनिरपेक्ष देश के राष्ट्राध्यक्ष को इस तरह किसी धर्म के कार्यक्रम में शामिल नहीं होना चाहिए। एक कांग्रेसी नेता ने तो इसपर बकायदा सवाल खड़े कर दिए। यहीं आकर तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का मामला एकतरफा झुकता दिखता है। मसला वहीं है कि हम करे तो सब ठीक आप करें तो गलत। आजादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता का एकतरफा नैरेटिव खूब चलाया गया, मगर अब इस नैरेटिव का दम निकलने लगा है।
प्रधानमंत्री के राम मंदिर ध्वजा समारोह में शामिल होने पर उठे सवालों ने एक बार फिर भारत की राजनीति के उसी पुराने लेकिन मूलभूत संघर्ष को उजागर कर दिया है, धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या और राजनीतिक दलों के वास्तविक चरित्र का परीक्षण।

कांग्रेस नेता राशिद अल्वी का यह कहना कि “प्रधानमंत्री किस हैसियत से मंदिर के धार्मिक आयोजन में भाग ले रहे हैं?” एक लोकतांत्रिक बहस का हिस्सा जरूर है, लेकिन इस बयान में एक अजीब तरह की चयनात्मकता साफ़ दिखाई देती है।

धर्मनिरपेक्षता का दोहरा पैमाना
भारत का धर्मनिरपेक्ष मॉडल पश्चिम जैसा नहीं है। यहां राज्य “धर्म से दूरी” नहीं रखता, बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान का सिद्धांत अपनाता है। नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी, हर सरकार का इतिहास धार्मिक आयोजनों से जुड़ा रहा है। यहां तक कि पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा अजमेर दरगाह पर चादर भेजने की परंपरा। इंदिरा गांधी का राजकीय इफ्तार शुरू करना व हज यात्रियों को दशकों तक सरकारी सब्सिडी देना, यह सब कुछ तब हुआ जब कांग्रेस सत्ता में थी। लेकिन इन मुद्दों पर कभी धर्मनिरपेक्षता की चिंता नहीं उठी।
फिर जब बात राम मंदिर की आती है, सवाल अचानक संवैधानिक हो जाते हैं।
यह विरोध नहीं, दोहरे मानदंड का स्पष्ट उदाहरण है।

राम मंदिरः सुप्रीम कोर्ट , जनता की आस्था, और राजनीति की भूमिका

यह भी सत्य है कि राम मंदिर आंदोलन प्रारंभ से ही भाजपा के वैचारिक एजेंडा का हिस्सा रहा है। यह वादा दशकों से उसके घोषणापत्र में दर्ज रहा। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि भूमि विवाद का अंतिम समाधान सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुआ। मंदिर का निर्माण राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। वित्तीय योगदान देशभर के करोड़ों लोगों की चंदा राशि से आता है, इसके बावजूद यह ऐतिहासिक रूप से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि निर्णायक कार्यवाही एनडीए शासन में ही संभव हुई।

इसलिए यह कहना तथ्यात्मक रूप से सही है कि “मंदिर अदालत और जनता के निर्णय से बना, लेकिन उसका मार्ग एनडीए शासन में प्रशस्त हुआ,।”

राजनीति का असली चरित्र कहाँ उजागर होता है?
कांग्रेस की समस्या यह नहीं कि प्रधानमंत्री धार्मिक कार्यक्रम में गए, बल्कि यह है कि यह कार्यक्रम हिंदू धार्मिक परंपरा से जुड़ा है। कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ एक ही रहा है अपने वोटबैंक के अनुरूप नैरेटिव चलाना। उनके लिए दरगाह पर चादर,
इफ्तार व हज सब्सिडी इन पर कांग्रेस को कभी ऐतराज़ नहीं हुआ।
लेकिन जैसे ही हिंदू आस्था का प्रश्न आता है, धर्मनिरपेक्षता “सक्रिय” हो जाती है।
यह व्यवहार राजनीतिक अवसरवाद से कम और क्या है?
भारत की लोकतांत्रिक जनता इन दोहरे मानदंडों को अच्छी तरह समझती है।
यही कारण है कि वर्षों से कांग्रेस को विश्वसनीयता संकट का सामना करना पड़ रहा है।
वहीं भाजपा ने राम मंदिर को अपनी राजनीतिक पहचान और वैचारिक प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में प्रस्तुत किया और उसे पूरा करके दिखाया।

किसी विचारधारा या प्रक्रिया का विरोध होना चाहिए, लेकिन वह तर्क, तथ्य और समान मानदंड पर आधारित होना चाहिए।
राम मंदिर का निर्माण कोई साधारण घटना नहीं थी।
यह न्यायपालिका, आस्था, राजनीति और समाज, चारों की सम्मिलित प्रक्रिया का परिणाम था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सिर्फ़ हिंदू प्रतीकों पर सवाल उठाना नहीं होता। यदि राजनीति को वास्तव में निष्पक्ष होना है, तो सिद्धांत सभी धर्मों पर एक समान लागू होने चाहिए।

कांग्रेस की समस्या यही है वह “धर्मनिरपेक्षता” को चयनात्मक रूप से उपयोग करती है,
और यही चयनात्मकता उसकी विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न है। राजनीति में आस्था गलत नहीं, दोहरे मापदंड गलत हैं।
और जनता आखिरकार इन्हीं दोहरे मापदंडों को पहचानकर निर्णय करती है।

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