सचिन कुमार सिंह। एडिटर
बिहार विधान सभा चुनाव में आम जनता ने जिस तरह का एकतरफा जनादेश दिया है, उसने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों व रणनीतिकारों के दिमाग की बत्ती गुल कर रखी है, उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि इस लैंडस्लाइड जीत को वे किस नजरिये से देखकर टिप्पणी करे। कुछ इस दस हजार का कमाल बता रहे, कुछ ईवीएम में पहले से एनडीए के पक्ष में 25हजार वोटों की फिडिंग का कमाल तो कोई राजद के माय समीकरण दरकने का कमाल तो कोई कुछ और कारण बता रहा।
कोई अपना गुस्सा मुख्य चुनाव आयुक्त पर निकाल रहा। लेकिन एक बात बताने से सभी कतरा रहे कि उन्होंने इस बार फिर जनता की नब्ज पकड़ने में बहुत बड़ी गलती कर दी। आम जनता में गुस्सा भी था, बेरोजगारी, बढ़ते अपराध, पलायन समेत कई मुद्दे थे जो सत्ताधारी दल के विरोध में जा रहे थे, मगर एक बात उतना ही तय है कि उनके पास कोई मजबूत विकल्प भी नहीं था जिसपर वे भरोसा कर सकते। अपनी सभाओं में महती भीड़ जुटता देख व जोशीले नारे व गीत को बजता देख हर विपक्षी नेता ने खुद ही आकलन कर लिया कि इस बार बदलाव होकर रहेगा।
आखिर बीस साल से सत्ता में रह रही सरकार के खिलाफ कुछ तो एंटी इंकमबैंसी होगी, इसलिए वे ओवर कांफिडेंट होते गये या आम जनता को दिग्भ्रमित करने की कोशिश करते रहे कि इस बार बदलाव होकर रहेगा। अब जनता के पास दो ही अन्य विकल्प है एक पुराना राजद-कांग्रेस व कम्युनिष्ट दलों का गठबंधन जिसमें मुकेश सहनी के वीआईपी ने इंट्री मारकर एक नया राजनीतिक समीकरण बनाने का प्रयास किया। दूसरी तरफ कल तक रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर उर्फ पीके की पार्टी जन सुराज थी, जिसने आम जनता को उम्म्मीदों की नई रोशनी दिखाने का भरपूर प्रयास किया था। पिछले तीन सालों से प्रशांत किशोर अनवरत बिहार के गांव-गंवई की खाक छान अपने लिए वोटों का नया समीकरण व अपने पार्टी के लिए कार्यकर्ता तलाश करते रहे, इसमें उन्हें सफलता भी मिली। मीडिया में बने रहने का भी उन्होंने वहीं पुराना तरीका अपनाया जो उन्होंने कभी 2014 में मोदी सरकार को सत्ता में लाने के लिए अपनाया था। उनके पास डाटाधारकों की पूरी सूटेड-बूटेड टीम थी। उन्होंने आम जनता की सबसे दुखती रग पलायन, बेरोजगारी, जातिवादी मानसिकता पर फोकस किया। पलायन के मुद्दे पर तो इन्होंने इतना कुछ माहौल बनाने की कोशिश की कि सभी राजनीतिक पंडितों को लगने लगा कि इस बार तो बदलाव होकर रहेगा।
रही सही कसर उनके कार्यक्रमों में उमड़ती भीड़ ने पूरी कर दी। अब यह अलग बात है कि इन सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ वोट में कितना तब्दील होती है। तो इस तरह महागठबंधन व पीके की पार्टी भी नये तरह की राजनीति का दावा करते हुए अपने-अपने तरीके से कोई हर घर नौकरी बांटने लगा तो कोई पलायन के तथाकथित शिकार मजदूरों को यह भरोसा दिलाने लगा कि नवंबर के बाद उन्हें पलायन का शिकार नहीं होना होगा, मगर इन चुनावी लॉलीपाप का उपरी आवरण उपर से जितना लुभावना दिख रहा था, अंदर से इसकी जमीन उतनी ही खोखली थी, आम जनता ने दोनों दलों की घोषणाओं को परखा जरूर मगर भरोसा करने की बारी आई तो उन्होंने पूर्व से आजमाये एनडीए मॉडल व नीतीश सरकार पर ही ज्यादा भरोसा किया। रही सही कसर चुनावी घोषण से पूर्व नीतीश सरकार द्वारा कई लोक लुभावन योजनाओं के कार्यान्वयन ने पूरी कर दी। नतीजा विपक्षी दलों के सारे मुद्दों की जान निकलनी शुरू हो गई।
इस बीच कांग्रेस के सुप्रीम लीडर राहुल गांधी हर माह दो माह पर वोट चोरी, एसआईआर को लेकर कभी एटम बम व हाइड्रोजन बम फोड़कर बिहारी मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश में सीमांचल इलाकों में लंबी-लंबी यात्राएं निकाली, जिनमें इनके घटक दल को प्रमुख भी शामिल हुए।
हालांकि वोट चोरी का मुद्दा इस लिए ज्यादा कारगर नहीं हो पाया क्योंकि जिस आदमी का वोटर लिस्ट में नाम सही-सलामत रह गया वे क्यों खामखाह इस मामले में पड़ते। जो नाम कटे वे भी ज्यादातर दोहरे वोटर कार्ड व मृत मतदाताओं के ज्यादा थे, इसलिए मीडिया में जितना इसका शोर मचा हकीकत में इसका जमीनी स्तर पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। रही सही कसर इन सभाओं में पीएम मोदी व इनकी मां को कहे गये अपशब्दों ने पूरी कर दी। अवसर की तलाश में रही भाजपा ने इससे सेंटिमेंटल मामला बना पीएम मोदी के खिलाफ माहौल बदलने की जगह बनाने में मदद की।
इसके अलावा भाजपा व एनडीए के घटक दलों ने एक तरफ तो जमीनी स्तर पर पूरी ताकत झोंक दी, वहीं महागठबंधन नेता सीएम व डिप्टी सीएम फेस तय करने में समय जाया करती रही। रही सही कसर सीट शेयरिंग व कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट ने पूरी कर दी।
महागठबंधन की करारी हार: ये रहे असली कारण
1. MY समीकरण का ‘ओवरएस्टिमेशन’
RJD ने मान लिया कि मुस्लिम-यादव का वोट अपना “स्वाभाविक बैंक” है। लेकिन इस बार युवाओं में जातीय ध्रुवीकरण उतना तेज नहीं दिखा। सामान्य और OBC की युवा आबादी विकास–नौकरी वाले नैरेटिव के साथ गई।
2. ‘हर घर नौकरी’ का वादा भरोसा नहीं दिला पाया
ऐसी घोषणा जनता को सुनने में तो अच्छी लगी,
पर उसे असंभव मानकर लोग सतर्क रहे।
3. राहुल गांधी की यात्राओं का उलटा असर
सीमांचल की यात्राएँ और वोट चोरी—EVM—SIR वाले बम, जितना शोर मचाए,
जमीन पर उतना असर नहीं छोड़ सके।
क्योंकि—
जिसका वोटर लिस्ट में नाम था, वह क्यों नाराज़ हो?
इसके उलट, उनके भाषणों में PM मोदी व परिवार से जुड़े अपमानजनक शब्द
विपक्ष के लिए भारी पड़ गए। भाजपा ने इसे भावनात्मक मुद्दा बनाकर
सेंटिमेंटल लहर खड़ी की।
4. महागठबंधन की विश्वसनीयता कमजोर
20 साल में कई बार सत्ता में आकर
कुछ नई पेशकश न कर पाना,
मतदाताओं को यह समझा गया कि
“पुराना मॉडल – पुरानी राजनीति।”
जनसुराज और पीके की हार: भीड़ नहीं, वोट चाहिए
तीन साल दौरे,
करोड़ों की टीम,
डेटा-विश्लेषण,
पलायन–बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दे…
फिर भी PK एक सीट नहीं जीत सके।
क्यों?
1. भीड़ और वोट के फर्क को न समझना
पीके ने यात्रा में जुटी भीड़ को
जनाधार मान लिया।
बिहार में भीड़ सभाओं में आती है,
वोट बूथ पर बनता है।
2. एंकर कास्ट का अभाव
बिना किसी मजबूत जातीय आधार के
नई पार्टी टिक नहीं पाती।
PK की पार्टी हर समाज से जुड़ने चली,
पर किसी एक का वोट भी पक्का नहीं कर पाई।
डेटा टीम बनाम जमीन का सच
Excel Sheet पर कहानी अच्छी लगती है,
वोटर बूथ पर मन से निर्णय लेता है।
PK यह फर्क नहीं पकड़ पाए।
5. खुद को विकल्प मानने की जल्दबाज़ी
बिना संगठन,
बिना जातीय पकड़,
बिना अनुभवी चेहरों के
सीधे नीतीश–तेजस्वी का विकल्प बनने की कोशिश
जमीन पर हकीकत से टकरा गई।
नीतीश–एनडीए की बढ़त: आखिरी दो महीनों ने गेम बदल दिया
1. चुनाव से ठीक पहले योजनाओं का तेज़ क्रियान्वयन
लड़कियों की स्कीमें,
सहायता योजना,
पेंशन,
भत्ते—
सब तेज़ी से जमीन पर उतरे।
2. BJP ने रणनीति में सेंटीमेंट कार्ड लागू किया
राहुल गांधी के भाषणों में आए विवादित शब्द विपक्ष के लिए आत्मघाती साबित हुए।























































