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दीपावली का आध्यात्मिक रहस्यः आखिर कार्तिक अमावस्या को ही क्यों मनाई जाती है दीपावली, पढ़ें पूरी खबर

मोतिहारी। अशोक वर्मा
भारत को पर्व त्योहारो का देश कहा जाता है। यहां मनाए जाने वाले सभी पर्व त्योहारों के पीछे धार्मिक कहानियां होती है तथा उसका अध्यात्मिक रहस्य और संदेश भी होता है। प्रकाश पर्व दीपावली का भी अपना अध्यात्मिक रहस्य और संदेश है। कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला दीपावली वास्तव मे एक संदेश वाला पर्व है।
जिस प्रकार भारत में शिवरात्रि और श्री कृष्ण जन्माष्टमी होता है उसी तरह दीपावली पर्व भी है। यह तीनों मुख्य पर्व जो है वह घोर अंधियारे से उजाले की ओर ले जाने का जो कार्य परमात्मा द्वारा किया गया उसी का यादगार स्वरूप है। दीपावली के बारे में बताया जाता है कि राजा बलि एवं नरकासुर नामक दैत्य जिसने तमाम देवी-देवताओं सहित अन्य राजा महाराजाओं को जेलों में कैद करके अपना साम्राज्य कायम किया था, उस असुर राज्य को समाप्त करने के लिए परमात्मा का अवतरण भारत की भूमि पर हुआ। वे अपने ज्ञान और शक्ति के बल पर असुरों का नाश कर सभी को असुरो के कैद से छुड़ाये । जब सारे देवी देवता पांच विकार रुपी असुरों के जेल से मुक्त हुए तो खुशी का माहौल हुआ और उसी खुशी को घर-घर में दीप प्रज्वलित कर लोगों ने दीपावली मनाया। हरेक पांच हजार वर्ष पर गीता ग्रंथ में बताए समय पर परमात्मा भारत की भूमि पर अवतरित होते हैं तो उस समय दुनिया घोर अंधियारे मे होती है। पांच विकार ही असुर का प्रतीक है। रावण को 10 सिर दिखाने के पीछे का रहस्य यही है। 5 पुरुष और 5 विकार स्त्री का प्रतीक स्वरूप होता है। रावण का वध राम के द्वारा दिखाया गया है। सभी कहानियों के पीछे का सच यही है कि भगवान द्वारा ही असुरो का नाश होता है । बुझी हुई आत्मा रुपी दीपक मे ज्ञान घृत डालकर परमात्मा जगाते हैं। संगम युग मे परमात्मा के इस महान कार्य का यादगार ही द्वापर से पर्व त्यौहार बनते हैं। दिपावली त्योहार को अनेक तरह से लोग मनाते हैं। जुआ खेलने का भी प्रचलन है, रतजगा होता है। लक्ष्मी की सवारी उल्लू दिखाते हैं ,आदि। सभी को मालूम है कि उल्लू प्रकाश में नहीं निकलता वह अन्धेरा मे हीं निकलता है ।दीपावली मे जुआ खेलने का जहां तक प्रश्न है तो धन देवी लक्ष्मी की प्रतीक्षा जुआ खेलने वाले रात्रि में करते हैं। उन्हें विश्वास होता है कि जुआ के द्वारा जो धन की प्राप्ति होगी वही आशीर्वाद स्वरुप सालो भर धन प्राप्ति होती रहेगी।, लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। आज दुनिया में धन तो बढे हैं, सुख शांति के साधन भी बढे है। लक्ष्मी का आह्वान भी लोग करते हैं , लेकिन सुख शान्ति से लोग दूर होते चले गए। एक कविता में कवि ने कहा है–
कांपते हाथों से कैसे कौन सा दीपक जलावे,
हर तरफ मातम मचा है कैसे दिवाली मनाए?
सुख के सागर में डूबा आज का संसार है, वैर, घृणा ,स्वार्थ, अत्याचार की भरमार है।
कुटिलताओं ने कलंकित कर दिया है धर्म को ,
धारणा ही धर्म है–भूले हैं सभी इस मार्ग को।
अब तो इस संसार को भगवान ही चाहे बचावे—-
हर तरफ मातम मचा है, भय और डर का , अब तो इसे भगवान ही बचावे।ष्
5 हजार वर्ष के चार युगों वाले कल्प के अंतिम समय में जब दुनिया घोर अंधियारे मे में चली जाती है, धर्म से भटक जाती है, अध्यात्म के अर्थ को समझ नहीं पाती , यानी धर्म गलानी का जो दौर होता है वही समय परमात्मा के अवतरण का होता है। उस समय को रात्रि प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है ,अँधियारे मे परमात्मा आकर दुनिया को जब प्रकाशित करते हैं यानि ज्ञान ज्योत जगाते हैं तब नईदुनिया आरंभ होती है, उसे ही आदि युग सतयुग कहते हैं। सतयुग से नया चक्र आरंभ होता है।फिर त्रेता, द्वापर ,कलयुग और 5000 वर्ष के अन्त मे पुरुषोत्तम संगम युग परमात्मा के अवतरण के साथ आरंभ होता है।

यह 100 वर्ष का होता है। संगम युग के समापन पर दुनिया परिवर्तित हो जाती है। वह सत्युग होता है। वर्तमान समय परिवर्तन का है और नई दुनिया शीघ्र ही अब आरंभ होने वाली है।वहां दीपक ही दीपक होगा, रोशनी ही रोशनी होगी ,सभी खुशहाल होंगे, डाल- डाल पर सोने की चिड़िया होगी, दूध की नदिया बहेंगी, भेड़ और बकरी एक साथ जल पिएंगे उसे ही स्वर्णिम युग कहा जाता है और सच्ची दीपावली वही होती है।

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